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है । अब उसकी मान्यता आदि सब विपरीत उल्टी ही हो जाती है। ऐसे मोहनीय कर्म में मुख्य जो मिथ्यात्व है वह प्रथम उसके मन-बुद्धि पर हावी हो जाता है और मान्यता-जानकारी दोनों पर असर करके उसे विकृत - विपरीत कर देता है । जैसे शराबी माँ को पत्नी और पत्नी को माँ ऐसा उल्टा मानता था, व्यवहार भी उल्टा करता था, ठीक वैसे महामूढ मिथ्यामती जीव मोहग्रस्त दशा में आत्मा को ही न माने, शरीर को ही आत्मा कहकर व्यवहार करे । परमात्मा को भी सर्वथा न मानते हुए भगवान वगैरे कुछ नहीं है ऐसी बातें बोलता है । अरे स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म मोक्ष आदि कोई तत्त्वभूत पदार्थ है ही नहीं । क्यों इनको मानना ? निरर्थक है । होते हुए भी न मानने की विपरीत विचारणा कराना मिथ्यात्व मोहनीय का कार्यक्षेत्र है। अब ऐसे जीव का ज्ञान भी विपरीत हो तो फिर मान्यता भी विपरीत ही होगी । तथा इन दोनों के सर्वथा विपरीत होने के कारण फिर... उसका आचरण - व्यवहारादि सर्वथा विपरीत ही होगा यह मिथ्यात्व का स्वरूप है ।
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मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ - २८
दर्शन मोहनीय ३
मिथ्यात्व मो. मिश्र मो. सम्यक्त्व मो.
+
+
१
१
१
३५०
=
मोहनीय कर्म
३
क्रोध I
अनन्तानुबंधी आदि ४ + ४ +
मान
इस तरह ३ + १६ ६ ३
कषाय मो.
चारित्र मोहनीय २५
नोकषाय मो.
= १६
माया
T
४ + ४
लोभ हास्य
T
६
आध्यात्मिक विकास यात्रा
२८ कुल प्रकृतियाँ हैं ।
+
= ९
वेद.
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