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अध्याय ७
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"मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान
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परम आदरणीय... परम दर्शनीय... परम वंदनीय... परम पूजनीय... परमपिता परमात्मा... देवाधिदेव शासनाधिपति श्री वर्धमानस्वामी के चरणारविन्द में अनन्तानन्त वन्दना करते हुए.... गुण दोषों की मिश्रीभाव स्थिति
- आत्मा इस संसार में एक द्रव्य है जो कि संसारी अवस्था में गुणयुक्त भी है और दोषयुक्त भी है । संसारी जीव कर्माधीन है । कर्मग्रस्त है । कर्म के कारण ही संसार है और संसार के कारण कर्म है । चेतनात्मा स्व-द्रव्य की अपेक्षा निश्चित ही गुणवान् है । गुणरहित द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं है तो फिर एक भी जीव चाहे वह कहीं भी हो कैसा भी हो निश्चित रूप से उसकी गुणात्मक स्थिति है ही । द्रव्य कभी भी गुण के बिना रहता ही नहीं है और गुण कभी भी द्रव्य के बिना रहते ही नहीं हैं । इस नियम के आधार पर यदि कोई जीव है तो निश्चित ही वह गुणवान है ही । गुण सत्ता में ही पडे हुए हैं । अतः अस्तित्व की... सत्ता की दृष्टि से जीव जीवगत गुणवान है ही । परन्तु संसारी अवस्था में कर्मों से गुण ढके हुए दबे हुए रहते हैं। - हम जब भी कर्म करते हैं तब दूसरों को नुकसान नहीं होता है, बांधनेवाले को भी भविष्य में दुःख या सुखादि जब मिलेगा तब की बात तब है लेकिन वर्तमान में वह जीव ... सबसे पहले भारी कर्म उपार्जन करके अपने गुणों को तो ढक ही देता है । कर्म अपने गुणों को आच्छादित कर देता है । गुण ढक जाने के बाद दोषों का स्वरूप प्रकट होता है। उसके बाद जीव वैसी दोषयुक्त ही प्रवृत्ति करेंगे। उसकी क्रिया प्रवृत्ति अब सब कर्मजनित होगी । गुणजनित नहीं हो सकेगी। क्योंकि गुण कर्मों से दबे हुए हैं। ऊपर तो कर्म ही है। और कर्म सब अशुभ हैं । कोई कर्म ऐसे नहीं हैं कि जो आत्मा के गुणों को सीधा प्रकट करता हो । कर्म आत्मा का अरि = शत्रु है । इसलिए वह गुणनाशक-गुणघातक है। तभी तो शत्रुभाव रखता है । कर्मों के कारण फिर वैसी विपरीत प्रवृत्ति ही होती रहेगी।
"मिथ्यात्व" - प्रथम गुणस्थान
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