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________________ चेतनात्मा कर्म रहित शुद्धावस्था में आत्मा के यथाख्यात स्वरूप तब उसमें अनन्त गुण रहते हैं । तीनों काल अनन्त चारित्र गुण पर सेकडों पाप के इस संसार में ऐसा एक भी गुण नहीं है प्रवृत्तियों के कारण लगे हुए भारी कर्मों जो शुद्धात्मा – मुक्तात्मा - सिद्धात्मा में का आवरण आ जाता है। जैसे शुद्ध न हो । क्षमा, समता, नम्रता-विनयगुण, सफेद कपड़े पर दाग लग जाता है वैसे ही सरलता, संतोष, विरक्तता, करुणा, दया आत्मा पर कर्म का स्तर बन जाता है । जैसे विवेकगुण निष्काम, काम वासना रहित बादलों से सूर्य ढकने के कारण प्रकाश शुद्ध ब्रह्मचर्य आदि अनेक आत्मा में हैं। नहीं फैलता है, और अंधेरा जैसा आत्मा के मुख्य स्वरूप दर्शक ज्ञान - वातावरण बनता है ठीक वैसे ही पौद्गलिक दर्शन – चारित्रादि जो ८ गुण हैं, उनमें कर्मों के कारण बने हुए स्तर के आवरण यथाख्यात स्वरूप या अनन्त चारित्र इस से आत्मा के गुण ढक जाते हैं और दोष एक ही गुण के अन्तर्गत ये सब क्षमा - प्रगट होते हैं । अब कर्माधीन जीव सर्वत्र समतादि गुण आते हैं। एक गुण में ही जहाँ भी जाएगा वहाँ दोषों से व्यवहार सबका समावेश होता है। ज्ञान - करेगा। आत्मा का एक गुण यथाख्यात दर्शनादि तो अतिरिक्त हैं। जितने प्रमाण स्वरूप (अनन्त चारित्र) कर्मों के आवरण में कर्मों का क्षय – क्षयोपशम हुआ होगा से जब ढक जाता है तब उस पर उतने प्रमाण में गुण प्रकट होते हैं । गुणों आच्छादित कर्म मोहनीय कर्म के नाम से के आधार पर उन गुणों को धारण | पहचाना जाता है । उस मोहनीय कर्म के. करनेवाला वैसा गुणी – गुणवान प्रबल-तीव्र उदय में आत्मा के गुण बनेगा। तथा गुणवान में सारी क्रिया क्षमा समतादि दब-ढक जाते हैं । और तथा व्यवहार उन गुणों के आधार पर जीव क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, रागी, होगा। इसलिए आचार-विचार द्वेषी, कामी, क्रूर, कठोर, निर्दयी, मूढ, गुणवान के अच्छे होंगे। वह क्षमा निष्ठूर, कषायी, निंदक, ईर्ष्यालु, मत्सरी, रखेगा। समता रखेगा। किसी के हिंसक, ठग, असहिष्णु आदि अनेक क्रोध के आगे क्रोध न करते हुए | दुर्गुणवाला-दोषयुक्त जीव बनता है। क्षमा-समता से काम लेगा। नम्रता- अब वैसा कर्माधीन बनने के कारण विनय गुण के आधारपर वह नम्र विनयी व्यवहार - प्रवृत्ति आदि सब उन दोषों बनेगा। उसकी बोलचाल भाषा मीठी, के आधार पर ही चलेगा। अब वह मधुर विवेकी, सरल-आदरार्थी होगी। दोषों के विकास के आधार पर सारा व्यवहार बडा ही नम्र रहेगा। क्रोध करेगा, अभिमान-अहंकार करेगा, गुणात्मक विकास
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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