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गुणों का आश्रयस्थान-आत्मादोषों का आश्रयस्थान-कर्म
याद रखिए, समस्त गुणों का आधारभूत आश्रयस्थान एकमात्र चेतनात्मा ही है। आत्मा को छोडकर गण अन्यत्र कहीं रहते ही नहीं हैं। और आत्मा संसारी अवस्था में कर्माधीन स्थिति में इस शरीर में रहती है। अतः व्यवहार से देहधारी व्यक्तिविशेष ही गुणवान गुणी कहलाता है । अतः गुणों को देखने-लेने के लिए गुणी व्यक्ती के पास ही जाना पडता है । जैसे सुगंध लेने के लिए फूलों के पास ही जाना पडता है । सुगंध भी लेनी है और फूलों से द्वेष भी करना है, दुर्भाव भी करना है यह दोनों तो कैसे संभव हो सकता है ? ठीक वैसे ही गुण गुणी व्यक्ती में ही रहते हैं । गुण लेने भी हैं और गुणवान व्यक्ती से द्वेष-दुर्भाव करना है ये दोनों एक साथ तो कैसे संभव हो सकता है ? यदि संसार में गुणी-गुणवान व्यक्ती ही नहीं होते तो गुणों का भी अस्तित्व नहीं होता । अतः दोनों अभेद भाव से रहते हैं। ___ आध्यात्मिक गुणों का आश्रयस्थान चेतनात्मा ही है । अनन्त गुणों का भण्डार है। खजाना है । और इन पर जब कर्म का आवरण बडा भारी आ जाता है तब गुण ढक जाते हैं और कर्मजन्य दोष ज्यादा प्रगट हो जाते हैं । यहाँ दोनों का भेद देखेंगेआत्मा के गुण
कर्मजन्य दोष- मोहनीय कर्म जन्य
यथाख्यात अनन्तचारित्र
मोहनीय
क्षमा समता नम्रता
क्रोध सरलता
मान माया - लोभ -
काम-वासनास संतोष . ममत्व, मोहदशा विरक्ति
क्रूरता, कठोरता करुणा, दया विनय
कर्म
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आध्यात्मिक विकास यात्रा