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________________ गुणरूपी रश्मियों को रस्सी की तरह पकड़कर दूसरे चढ सकते हैं परन्तु आप स्वयं अपने ही गुणों की रश्मिरूप रस्सी को पकड कर नहीं चढ सकते। दूसरों को आलंबन प्राप्त हो तैरने का, दूसरे भी आपका आलंबन पाकर अपना उद्धार कर सके इसके लिए भी आप गुण बढाइए। गुणानुराग, गुणानुवाद, गुणदर्शन ये अच्छे लाभप्रद सोपान है जिसका आलंबन लेकर संसार में अनेक आत्माएं तैर सकती हैं। तैरने के उपाय इस संसार में, अरे आजके भयंकर कलियुग में भी सर्वथा लुप्त नहीं हो गए हैं। अभी भी उपलब्ध हैं। सिर्फ आपको उन आलंबनों का आश्रय लेना आना चाहिए । प्रमोदभावना “गुणा: पूजास्थानं गुणिषु न च लिंगं, न च वयः । " 1 संसार में एक बात सही है कि... व्यक्ति के गुण ही पूज्य-पूजनीय होते हैं, और गुणों के कारण ही व्यक्ती पूजनीय बनती है । न तो अन्य हेतुओं से और न ही उम्र से व्यक्ती पूजा जाता है । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ इन चार भावनाओं में प्रमोद भावना दूसरों के गुणों को देखकर आनन्दित होने के लिए है । प्रमोद - आनन्द को कहते हैं । अनादि कालीन जीवों का स्वभाव ही ऐसा है कि उन्हें अपने ही गुणों की स्तुति - प्रशंसादि में आनन्द आता है । बस, इस अनादि कालीन स्वभाव को बदलकर अब परगुणों को देखते हुए दुगुना चौगुना आनन्द आना चाहिए। यह है प्रमोद भावना । इससे कई लाभ हैं । प्रमोदमासाद्य गुणैः परेषां येषां मतिर्मज्जति साम्यसिन्धौ । देदीप्यते तेषु मनः प्रसादो, गुणास्तथैते विशदीभवन्ति ॥ I अध्यात्मकल्पद्रुम में विनयविजयजी महाराज कहते हैं कि... दूसरों के गुणों को देखकर प्रमोद - आनन्द पाकर जिनकी बुद्धिं समता सागर में मग्न बनती है उनमें मन की प्रसन्नता बहुत ही ज्यादा शोभती है । उस साधक में वे गुण बहुत अच्छी तरह एवं बहुत ही जल्दी विकसित होते हैं। वृद्धि पाते हैं। निर्मल बनते हैं । अतः प्रमोद भावना अत्यन्त उपकारी भावना है । ऐसी भावना करनेवाला साधक सदा ही महापुरुषों को ढूंढता रहता । उनका सत्संग संत-समागम करने के लिए लालायित रहता है 1 है यावत् परगुणदोषपरिकीर्तने व्यापृतं मनो भवति । तावद्वरं विशुद्धे ध्याने व्यग्रं मनः कर्तुम् ॥ प्रशमरति में साफ कहां है कि जब तक यह मन पराए गुण-दोष गाने में व्यग्र रहता है तब तक इस मन को विशुद्ध ध्यान में जोडना चाहिए। नहीं तो यह मन ... . दोषों को गाकर भारी कर्म उपार्जन करता जाएगा । गुणात्मक विकास ३३१
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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