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________________ मेतर, चमार, चाण्डाल, कसाई आदि के नीचे कुल-नीचे वंश, हल्की खानदानी, अधम गोत्र भी है । जीव यहाँ पर जैसे कर्म उपार्जन करता है तदनुसार उच्च गोत्र में भी जाता है और नीच गोत्र में भी जाता है । जैसे कर्म वैसा कुल । उच्च गोत्र को अच्छा कहकर कर्मग्रन्थकार महर्षि ने उसकी गणना शुभ पुण्य प्रकृति में की है। जबकि ठीक इसके विपरीत अशुभ - पाप प्रकृति में नीच गोत्र की गणना की है । इन दोनों प्रकार के गोत्रों का बंध कैसी पाप प्रवृत्ति के आधार पर होता है उसका विचार करते हुए तत्त्वार्थ सूत्रकार सूत्र में फरमाते हैं कि - " परात्मनिंदाप्रशंसासदसद् गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य " ६ - २४ । परनिंदा करने से और स्वप्रशंसा करने से, तथा दूसरों के सद्गुणों की निंदा करने से, और अपने अवगुणों को ढांकने की प्रवृत्ति करने से जीव नीच गोत्र कर्म उपार्जन करते हैं । संसार में ४ प्रकार के जीव हैं १) २) ३२८ अपने गुण देखते हैं और पराए दोष देखते हैं । अपने दोष देखते हैं और पराए गुण देखते हैं । अपने और पराए दोनों के दोष देखनेवाले । ३) ४) अपने और पराए दोनों के गुण देखनेवाले । 1 इन ४ प्रकार के जीवों में अलग-अलग प्रकार की वृत्ति होती है। अब आप ये ढूँढ कि इन ४ में कौन श्रेष्ठ, अच्छा - खराब है ? १) एक नंबर के जीव जो अपने गुण देखते हैं और दूसरों के सिर्फ दोष ही देखते रहें तो नीच गोत्र कर्म बांधते हैं। ये अध कक्षा के जीव हैं । २) दूसरे नंबर के जीव जो अपने दोषों को देखते - कहते हैं और पर के गुणों को देखना- कहना - गुणस्तुति करनेवाले सर्वश्रेष्ठ प्रकार के ऊँचे भाग्यशाली हैं । ऐसे लोग उच्च गोत्र कर्म उपार्जन करते हैं । ३) तीसरे प्रकार के लोगों की दोनों पक्ष में एक मात्र दोषों को ही देखने की है । जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि वाले वे जीव हैं । उनकी नजर में दुनिया में कोई गुणवान ही नहीं है। सभी दोषों-दुर्गुणों से ही भरे हुए हैं ऐसा वे मानते हैं। ये अधम कक्षा के जीव हैं । हल्की मनोवृत्ति के हैं। सिर्फ थोडा अच्छा यह है कि दूसरों के साथ साथ अपने में भी दोष ही भरे हुए हैं ऐसा कहते हैं । ४) चौथे प्रकार के जीव ऐसे होते हैं कि ... स्व और पर दोनों पक्षों में गुण - ही गुण देखते हैं । पर में गुण देखना तो बहुत अच्छा है परन्तु अपने पक्ष में भी गुण ही गुण देखता है । यदि गुण अपने में भरे पड़े हों और वह देखता है तो तो कुछ अच्छा भी है लेकिन अपने में गुण न होते हुए भी यदि वह गुण कहता है । निरर्थक प्रशंसा करता है तो बहुत ज़्यादा खराब है । आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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