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________________ गुणदर्शन में सावधानी अपने स्वयं के गुणों को देखने से अहंकार की मात्रा बढने की संभावना रहती है और जब दूसरों के गुण देखें तो ईर्ष्या-द्वेष - मत्सरभाव बढता है । दोनों तरफ से हमारी स्थिति खराब होती है । ऐसी परिस्थिति में क्या करना ? इसके लिए बडी सावधानी रखनी चाहिए। अपने आप में यदि कोई गुण पडे हैं और आप देखते हैं तो जरूर देखिए कोई मना नहीं है । सिर्फ इतना ही ध्यान रखें कि ... आपको अभिमान न आ जाय । अहंकार में आप चढ जाएंगे तो न मालूम कहाँ से कहाँ तक पहुँच जाएंगे। पतन अहंकार में बहुत ही जल्दी होता है । बाहुबलीजी जैसे अभिमान में चले गए। १ वर्ष तक कायोत्सर्ग - ध्यान साधना में रहनेवाले महापुरुष अहंकार में इतने चढ गए कि केवलज्ञान की प्राप्ति भी रुक गई । आखिर बहनों की शिक्षा से जैसे ही उनको अहंकार भाव का ख्याल आया... . कि तुरंत उतरे ... और नम्रता गुण पर आरूढ हुए कि केवलज्ञान प्राप्त हो गया । संजीवनी लेने गए हुए पवनपुत्र हनुमानजी जब पूरा पहाड ही उठाकर लेकर आ रहे 1 - थे । तब उन्हें भी अपनी शक्ती का अभिमान हुआ... और अभिमानी कितने जल्दी गिरते हैं का अच्छा उदाहरण हनुमानजी का है – कि उन्हें तीर लगता है और नीचे पतन होता है । ऐसे परम रामभक्त की यह स्थिति हुई तो सामान्य मानव अभिमान से कैसे बचेगा ? यह प्रश्न विचारणीय है । परमात्मा महावीर प्रभु की आत्मा अपने तीसरे मरीचि के भव में थी तब ... जब त्रिदंडी बनकर बैठे हैं ऐसे समय भगवान आदिनाथ प्रभु से भावि भविष्यवाणी सुनकर भरत चक्रवर्ती मरीचि के पास आए। वंदनादि करके उन्होंने ... भविष्यवाणी सुनाते हुए कहा कि .... हे मरीचि । आप वासुदेव बनोगे, चक्रवर्ती बनोगे, और अन्त में जाकर इसी चौबीसी के अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर बनोगे । अपनी प्रशंसा - गुणस्तुति श्रवण कर मरीचि फूले नहीं समाए । संसार से विरक्त हुए महापुरुष में भी वह समता - नम्रता - निरहंकारिता नहीं आई और आखिर भारी अभिमान के वश हो गए। ऐसा और इतना भयंकर कक्षा का कुल मद किया कि जिससे पतन भी बडा भारी हुआ । वे गिरे... तीसरे भव के बाद लगातार एकान्तर ६ भव याचक कुल में लेने पडे.... । कई बडे बडे आयुष्यवाले लम्बे भव करने पडे... इतना ही नहीं २४ जन्मों के बाद अन्तिम २७ वें भव में भी उस कर्म का विपाक उन्हें भुगतना ही पडा । नीच गोत्र में जाना पडा । देखिए भगवान महावीर की गुणात्मक विकास ३२९
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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