SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणवान-गुणियल बनना आसान है कि गुणानुरागी-गुणग्राहक दृष्टिधारी बनना आसान है ? इस प्रश्न के उत्तर में भी कहते हैं कि- गुणवान बनना बडा सरल है-आसान है । परन्तु गुणानुरागी बनना बहुत कठिन है । क्योंकि ईर्ष्या-द्वेष का स्वभाव रहते हुए भी कोई व्यक्ती किसी न किसी प्रकार के गुणों को विकसित करके गुणवान बन सकता है, परन्तु ईर्ष्या-द्वेष की वृत्ति सर्वथा समाप्त करके गुणानुरागी बनना बहुत ही कठिन लगता है । जब तक ईर्ष्या-द्वेष-मत्सरवृत्ति खतम नहीं होती है तब तक पूर्णरूप से गुणानुरागी कोई बन ही नहीं सकता है। और गुणानुरागी बने बिना दूसरों के गुण के प्रति आदर-सद्भाव कैसे बढेगा? हमें एक ऐसा Magnifying Glass लेना चाहिए जो किसी चीज को दुगुना चौगुना दसगुना बडा बताता है । ऐसे ग्लास का उपयोग दूसरों के छोटे से छोटे गुण को देखने में करना चाहिए। जिससे दूसरों के छोटे गुण भी बडे दिखेंगे। ताकि हमें आचरने का एवं अनुमोदना करने का ज्यादा भाव हो । ठीक इसी तरह उसी ग्लास का उपयोग अपने स्वयं के दोषों-दुर्गणों को देखने के लिए करना चाहिए... । जिससे छोटे भी दोष-दुर्गण बडे दिखाई दें। और आँखों के सामने आए । यदि अपने दुर्गुण बडे-मोटे स्वरूप में दिखाई देंगे तो उन्हें हराने, खलास करने का मन होगा। प्रबल पुरुषार्थ करके भी दोषों को निकाल सकेंगे। छोटे-छोटे गुण-दोषों को तो लोग गिनते ही नहीं हैं । लेकिन उन्हें यह मालूम नहीं है कि कांच की एक छोटी सी कण या कांटे का छोटा सा टुकडा, यदि पैर में फस जाय तो बड़े से बडे व्यक्ति को भी परेशान कर देता है । अरे ! राई-जीरा का छोटा सा कण दांत में फंस जाय और न निकल सके तो व्यक्ती को व्यथित कर देता है । इससे भी हजार गुना ज्यादा नुकसान एक छोटा सा पडा हुआ दोष करता है । अतः स्वदोषदर्शन एवं परगुणदर्शन की साधना बहुत ही कठिन होते हुए भी करनी ही चाहिए । प्रबल पुरुषार्थ से साधनी ही चाहिए। उच्च-नीच गोत्रकर्म का आधार आठ कर्मों में एक गोत्र कर्म है । इसका कार्य है जीवों को ऊँचा-नीचा कुल देना। हल्के-नीचे कुल में ले जाकर जन्म देना । या ऊँची कक्षा के ऊँचे कुल में जन्म देना । इस तरह गोत्र कर्म उच्च और नीच के दो विभाग में बंटा हुआ है । संसार में ऊँचा खानदान, ऊँचा वंश, ऊँचा कुल-गोत्र भी है । उसी तरह संसार के हल्के निम्न कक्षा के धेड, भंगी, गुणात्मक विकास ३२७
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy