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________________ गुणरूपी रत्नों-आभूषणों से सुशोभित सजे हुए महागुणी पुरुषों का जो व्यक्ती शुद्ध मन से, शुद्ध भाव से, सन्मान करता है, अनुमोदना–प्रशंसा करता है, उसे आगामी दूसरे भवों में भी वे और वैसे गुण निश्चित ही सुलभता से मिलते हैं। एयं गुणाणुरायं, सम्मं जो धरइ धरणि मज्झंमि । सिरिसोमसुंदरपयं, सो पावइ सव्वनमणिज्जं ॥ २८॥ इस गुणानुराग कुलक के रचयिता श्री सोमसुन्दरसूरि म. कहते हैं कि इस धरणीतल पर जो भी पुरुष उपरोक्त गुणानुराग को सही समझकर वैसे गुणों के प्रति अनुराग का भाव धारण करता हो सचमुच दूसरों के गुणों के प्रति ईर्ष्या द्वेष रहित मन से अनुमोदना करता हो, वैसे गुण अपने आप में विकसाता हो, ऐसा पुरुष विशेष सुंदर चमकते हुए सुशोभित पूर्णिमा के चंद्र समान (“सोम सुन्दर" कर्ता के नाम का रहस्यार्थ) जगत में सभी के लिए नमस्करणीय, वंदनीय पद को प्राप्त करता है। अर्थात् सभी जीवों के लिए नमस्कारयोग्य-तीर्थंकर-सिद्ध पद को प्राप्त करता है। इस तरह गुणानुराग कुलक के इन २८ श्लोकों में महापुरुष ने गुणों का वर्णन किया है, गुणवान महापुरुषों का वर्णन किया है, गुणवन्तों का लक्षण बताया है, गुणों के प्रति कैसा अनुराग बताया है, तथा गुणों की अनुमोदना आदि का कितना महान फल बताया है, तथा ईर्ष्या-असूया का कितना गंभीर दुष्परिणाम बताया है, इत्यादि सारा गुणों का, गुण संबंधी स्वरूप समझकर साधक को वैसा बनना चाहिए । बनने के लिए सदा प्रयत्नशील रहकर प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए। गुणग्राही दृष्टि- . गुण जिनमें हैं ऐसे गुणवान संसार में हैं या गुणों के देखनेवाले गुणदृष्टिधारी लोग संसार में ज्यादा हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में विचार करने पर ऐसा लगता है कि संसार में गुणवान अनेक हैं। लेकिन दूसरों के गुणों को गुणग्राहक दृष्टि से देखनेवालों की संख्या बहुत कम है। ईर्ष्या-द्वेष-असूया एवं मत्सरवृत्ति के कारण गुण होते हुए भी दिखाई नहीं देते हैं उल्टे दोष दिखाई देते हैं। काले चश्मे-गोगल्स के कारण सफेद चीज भी काली-श्याम दिखाई देती है । कमला (पीलीया) के रोगी के जैसी स्थिति ईर्ष्यालु-द्वेषी की है । अतः गुण होते हुए भी ईर्ष्या-द्वेष देखने ही नहीं देते हैं । अतः ऐसे काले चश्मे उतारने ही पडेंगे। तभी गुणग्राहक दृष्टि बन सकेगी। .. ३२६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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