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एवंविह जुवइगओ, जो रागी हुज्ज कहवि इग समयं । बीयसमयंमि निंद, तं पावं सव्वभावेणं
जम्मंमि तम्मि न पुणो, हविज्ज रागो मणमि जस्स कया । सो होइ उत्तमुत्तम, रूवो पुरिसो महासत्तो
।। १८ ।।
दूसरे प्रकार के उत्तमोत्तम पुरुष का लक्षण दिखाते हुए कहते हैं कि ऐसी रूपवती, यौवनवती तरुणिओं के बीच रहनेवाला कोई मनुष्य क्षणभर के लिए मन से गिर जाय, मानसिक पतन हो जाय, मन खराब विचारों से दूषित हो जाय, परन्तु दूसरी ही क्षण अपने आप को संभाल ले, सावधान कर ले और अकार्य में न गिरे, और अपने मानसिक पतन की मन ही मन निंदा गर्हा करते हुए दुबारा जिन्दगीभर वैसे विचार तक न आने दे वैसे पुरुष उत्तमोत्तम - महासत्त्वशाली होते हैं ।
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पिच्छई-जुवईरुवं, मणसा चिंदेई अहवा खणमेगं । . जो न चरइ अकज्जं, पत्थिज्जंतो वि इत्यीहिं साहू वा सढो वा सदारसंतोससायरो हुज्जा । सो उत्तम मणुसो, नायव्वो थोवसंसारो
।। २० ।। जो पुरुष
तीसरे प्रकार के उत्तम पुरुष का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि रूपसुन्दरियों के रूप का क्षण भर पान करके मन में ही राजी रागी होता रहे परन्तु स्त्रियों के द्वारा भोग की याचना करते रहने पर भी कुकर्म का आचरण सर्वथा नहीं करता है ऐसे उत्तम पुरुष साधुतुल्य गिने जाते हैं । साधु अपने महाव्रत में और श्रावक अपने स्वदारासंतोषव्रत में स्थिर रहे, ऐसे उत्तम पुरुष और इनके जैसे समकक्ष उत्तम पुरुष अल्प संसारी होते हैं । अल्पकाल में ही संसार के बंधन से मुक्त होनेवाले होते हैं ।
पुरिसत्थेसु पवट्ट, जो पुरिसो धम्म अत्यपमुहेसु । अनुन्न मवाबाहं, मज्जिमरुवो हवइ एसो
॥ १७ ॥
।। २१ ।।
चौथे मध्यम पुरुष का लक्षण कहते हैं कि जो पुरुष धर्म - अर्थ - काम इन तीनों पुरुषार्थों की परस्पर बाधा न पहुँचे इस तरह आचरण करता ही रहे ऐसे सुयोग्य पुरुषार्थी को मध्यम पुरुष कहा है ।
एएसि पुरिसाणं, जइ गुणगहणं करेसि बहुमाणा । तो आसन्न सिवसुहो, होसि तुमं नत्थि संदेहो
॥ १९ ॥
आध्यात्मिक विकास यात्रा
।। २२ ।।