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________________ ॥ १२॥ जइ इच्छह गुरुयत्तं, तिहुयण मॉमि अप्पणो नियमा। . ता सव्वपयत्तेणं, परदोसविवज्जणं कुणइ हे मानव ! यदि सचमूच तू तीनों लोक में अपनी यश-कीर्ति-प्रतिष्ठा–मान-सन्मान चाहता है तो पराए दोष-दुर्गुण देखना-बोलना सर्वथा छोड दे । अर्थात् दूसरों की सदा निंदा करने वाले की यश-कीर्ति-प्रतिष्ठा कभी भी नहीं बढती है। अतः पर की निंदा सर्वथा त्याज्य है। चउहा पसंसणिज्जा, पुरिसा सव्वुत्तमुत्तमा लोए। उत्तम उत्तम उत्तम, मज्झिम भावाय सव्वेसिं । ॥१३॥ संसार में ६ प्रकार के जीवों में से ४ प्रकार के- १) सर्वोत्तम, २) उत्तमोत्तम, ३) उत्तम, और ४) मध्यम- पुरुष सदा ही प्रशंसनीय हैं । प्रशंसा करने योग्य हैं । प्रशंसायोग्य पुरुष की प्रशंसा अवश्य ही करनी चाहिए। जे अहम अहम अहमा, गुरुकम्मा धम्मवज्जिया पुरिसा। ते विय न निंदणिज्जा, किंतु दंया तेसु कायव्वा ॥१४॥ पाँचवे प्रकार के लोग अधम कक्षा के तथा छटे प्रकार के अधमाधम कक्षा के हल्के लोग भी इस संसार में बहुत हैं, जो भारीकर्मी एवं धर्मरहित हैं ऐसे लोगों की भी निंदा नहीं करनी चाहिए। ऐसे लोगों के दोष-दुर्गुण नहीं देखना-बोलना चाहिए। परन्तु माध्यस्थभाव से उनकी भावदया चिन्तवनी चाहिए। पच्चंगब्भडजव्वणवंतीणं सरहिसारददेहाणं । जुवईणं मज्झगओ, सव्वुत्तम रूववंतीणं ।। १५ ।। आजम्म बंभयारी, मणवयकाएहिं जो धरइ सीलं। सव्वुत्तमुत्तमो पुण, सो पुरिसो सव्वनमणिज्जो (युग्मं) जगत में सर्वोत्तम पुरुष कैसे होते हैं ? उनकी बात करते हुए कहते हैं कि... उद्भट यौवनवाली स्त्री, सभी अंगों में यौवन कूट कूट कर बढा है ऐसी रूप-सौन्दर्य-लावण्यवती यौवना को देखकर भी, अरे उनके बीचमें रहकर भी जो पुरुष बाल्यावस्था से ही शुद्ध ब्रह्मचारी रह सके, मन-वचन-काया से नैष्ठिक ब्रह्मचारी रह सके, अपना-पराया शील सर्वथा खंडित न करे, ऐसे पुरुष सर्वोत्तम सर्वश्रेष्ठ हैं, और सभी के लिए नमस्करणीय, वंदनीय होते हैं। जैसे स्थूलिभद्रस्वामी, विजयशेठ और विजया शेठानी। ॥ १६॥ गुणात्मक विकास ३२३
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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