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________________ अतिशय ईर्ष्या-द्वेष की वृत्ति रूप अंधकार से अंधा होकर गुणवन्त महापुरुषों के गुणों के गुणगान करने के बदले यदि दोष देखता रहे, गुणी के भी मात्र दुर्गण ही गाते रहे तो, अवश्य इस भयंकर संसार में भटकते ही रह जाओगे । ईर्ष्या द्वेष गुण देखने ही नहीं देते हैं। जं अब्भसेई जीवो गुणं च दोसं च इत्थ जम्मम्मि। तं परलोए पावई, अब्भासेणं पुणो तेणं ॥८॥ जीव इस जन्म में गुण या दोष जिसको भी देखने-बोलने का अभ्यास करता है, आदत डालता है तो उसके आधारपर परलोक में पर भव में पुनः उसी संस्कार को ही पाएगा। इस भव में जो और जैसी आदतें डालते हो अगले भव में वे और वैसी आदतें कर्मवश साथ आती हैं । अतः यहाँ चेते। जो जंपइ परदोसे गुणसयभरिओ वि मच्छरभरेणं। सो विउसाणमसारो, पलालपुंजव्व पडिभाइ ॥९॥ __जो पुरुष स्वयं यदि सेंकडों गुणों से भरा हुआ गुणवन्त हो फिर भी यदि वह ईर्ष्या-द्वेष-असूया-मत्सरवृत्ति के स्वभाव से पराए दोष ही देखता है, दोषानुरागी ही होते हैं वह विद्वान-गुणवान पुरुष भी घास के पूंज की तरह निरर्थक होता है । सत्त्वहीन होता है । अतः गुणवान बनने के पहले गुणानुरागी बनना जरूरी है। जो परदोषे गिण्हइ, संतासंतेवि दुहु भावेणं । सो अप्पाणं बंधइ, पावेण निरत्थएणावि .. ॥१०॥ जो मनुष्य अपने दुष्ट स्वभाव-दुष्टता के भाव से परपुरुष में दोष न होते हुए भी देखता – गाता है, या होते हुए भी देखता-गाता है तो निश्चित समझिए कि... वह निरर्थक पाप कर्म बांधता है । दूसरों के दोष-दुर्गुण देखकर व्यर्थ में अशुभ पापकर्म क्यों उपार्जन करना? कभी भी नहीं करना चाहिए। तं नियमा मुत्तव्वं, जत्तो उपज्जए कसायग्गी। तं वत्थु धारिज्जा जेणोवसमो कसायाम ।।११।। जिन-जिन कारणों से आपकी अपनी कषाय रूपी अग्नि प्रदीप्त होती हो उन उन निमित्त कारणों को छोड देना चाहिए। और जिन निमित्तों से कषाय की अग्नि शान्त होती हो उसे अपनाना चाहिए। पर दोष देखने से कषायाग्नि बढती है, अतः त्याज्य है । तथा गुणानुराग से क्रोधावेश घटता है, अतः उपादेय है। ३२२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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