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________________ सिद्धियाँ - ऋद्धियाँ भी दुर्लभ नहीं हैं । अर्थात् गुणानुरागी भावि में राजा-महाराजा - वासुदेव - बलदेव - चक्रवर्ती और तीर्थंकर भी बन सकता है । ते धन्ना ते पुन्ना, तेसु पणामो हविज्ज महनिच्वं । जेसिं गुणाणुराओ, अकित्तिमो होई अवर ॥ ३ ॥ वे धन्य हैं, वे धन्यवाद के पात्र हैं, वे अभिनंदनीय एवं श्लाघनीय हैं, वे ही पुण्यशाली हैं। उन्हें सदा ही अनुराग बसता हो । अर्थात् गुणानुरागी को सदा नमस्कार किया गया है । किं- बहुणा भणिएणं, किं वा तविएण किं वा दाणेणं । इक्कं गुणानुरायं, सिक्खह सुक्खाण कुल भवणं 118 11 अरे ! बहुत ज्यादा पढने से भी क्या लाभ ? अरे ! बहुत तपश्चर्या करने से भी क्या फायदा ? अरे ! बहुत ज्यादा दान देने से भी क्या होगा? यदि आपने एक गुणानुराग को नहीं बढाया तो ये सब निष्फल जाएगा। गुणानुराग सुखों-फलों के घर समान है । खान है । अतः गुणों के प्रति अनुराग बढाओ। (यहाँ ज्ञान-दान - तप निष्फल नहीं बताए हैं, परन्तु गुण की महिमा गाई है ।) जइ वि चरसि तव विउलं, पठसि सुयं करिसि विविहकट्ठाई । धरसि गुणाणुरायं, परेसु ता निष्फलं सयलं 114 11 यदि आप उग्र तपश्चर्या करते हो, शास्त्रों का अध्ययन भी करते हो और अनेक गुना भारी कष्ट भी सहन करते हो, सब बात ठीक है लेकिन आपमें गुणानुराग ही नहीं आया तो सब व्यर्थ-निरर्थक है । तप- शास्त्राध्ययन गलत नहीं है। बिल्कुल सही ही है । परन्तु पर गुण देखने में प्रसन्नता - अनुराग से उनकी सार्थकता सिद्ध की है । सोऊण गुणक्करिसं, अन्नस्स करेसि मच्छरं जइवि । ता नूणं संसारे, पराहवं संहसि सव्वत्थं ॥६॥ दूसरों के गुणों के उत्कर्ष को देखकर -सुनकर भी यदि आप ईर्ष्या-असूया करते हो, मत्सरवृत्ति से आपका मन द्वेष धारण करता हो तो निश्चित समझिए कि इस द्वेषबुद्धि से भारी कर्मोपार्जन कर आप चारों गति के १४ लक्ष जीवयोनि के संसार चक्र में परिभ्रमण करते ही रहना पडेगा । सर्वत्र पराभव सहन करना पडेगा । गुणवंता नराणं ईसा भरतिमिरपूरिओ भणसि । जइ कहवि दोसले, ता भमसि भवे अपारम्मि गुणात्मक विकास 119 11 ३२१
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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