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चौथे नंबर के जीव फिर भी सत्य मार्ग पर हैं । दोषी - दुर्गुणी - अगुणी में दोष ही देखते हैं । जिसमें जहाँ जो है वही वहाँ देखना । अतः सत्यदृष्टि जरूर है परन्तु अपराण्ह में तेज चमकते हुए सूर्य को देखते ही जैसे दृष्टि हटा लेनी चाहिए, नहीं तो आँख को नुकसान होता है । इसी तरह दोषी दुर्गुणी के अधम कक्षा के दोष को देखते ही क्षणभर में वहाँ से मन हटा लेना चाहिए। देखना ही नहीं चाहिए। जिससे हमारे में दोष आए ही नहीं ।
इस तरह दोष से सर्वथा बचने की वृत्ति और गुणों को स्वीकारने की वृत्ति साधक का लक्षण है । गुणों को बारबार देखनेवाला ही गुणानुरागी बनता है । गुणानुरागी बनना अर्थात् लोहचुंबक के जैसा बनना है। जैसे एक चुंबक लोहकणों को आकर्षित करता है, अपने पास खींचता है, वैसे ही गुणानुरागी दूसरों में देखे हुए गुणों को अपने में खींचता है । इस तरह गुणों का वह पक्षपाती बनता है । गुणों को देखकर वैसा गुणी बनने की भावना रखता है । जीवन के बाग में गुणरूपी विविध पुष्पों को लगाकर जीवन को गुणों से सुवासित करना चाहता है । ऐसा गुणानुरागी जीव ही मोक्षमार्ग पर अग्रसर होता हुआ आध्यात्मिक उन्नति-प्रगति साधता है ।
गुण के विषय में काफी प्राचीनकाल से पूर्व महर्षि महापुरुषों ने अद्भुत भाव से भरे हुए अर्थ गंभीर ऐसा “गुणानुराग” कुलक बनाया है। वह साधकों के स्वाध्याय के लाभ हेतु यहाँ पर अर्थसहित अवतरण करता हूँ
गुणानुराग कुलक
सयलकल्लाणनिलयं नमिऊण तित्थनाहपयकमलं । परगुण महण सरुवं भणामि सोहग्गसिरिजणयं
॥ १ ॥
समस्त कल्याण के आधारभूत आश्रय स्थान स्वरूप जिनके चरण कमल है ऐसे देवाधिदेव परमात्मा को प्रणाम करके संपत्ति एवं सौभाग्यदायक परगुणानुराग के स्वरूप का वर्णन करता हूँ ।
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उत्तम गुणाणुराओ, णिवसझ, हिययंमि जस्स पुरिसस्स । आतित्थयरयाओ न दुल्लहा तस्स ऋद्धिओ
॥२॥
जिन पुरुषों के अंतस्थल - हृदय में उत्तमोत्तम महापुरुषों के प्रति अनुराग - गुणानुराग विद्यमान है उनके लिए तीर्थंकर पद – भगवान बनने तक की
आध्यात्मिक विकास यात्रा