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________________ सर्वगुणसंपन्न है तो गुरू भी परमात्मा के ही मार्ग पर चलनेवाले उन्हीं गुणों को अपना लक्ष्य-साध्य बनाकर चलनेवाले हैं। अतः गुण गुरु में भी दिखेंगे। हमें लेना आना चाहिए। लेकिन लेने के लिए देखना आना चाहिए । देखनेवाला ही ले सकेगा। गुणानुरागी बनें दूसरों के गुणों को देखकर उनके गुण अपने में लाने के लिए गुणों के अनुरागी बनना चाहिए । गुणानुरागी बनने के लिए बार-बार गुणदर्शन करना चाहिए । दूसरों के गुणों को देखकर राजी होना चाहिए । ओहो... अच्छा हुआ कि इस भाग्यशाली ने इन गुणों को टिकाया है । गुण को बचाकर गण का अस्तित्व रखा तो है । हाँ, गण को देखता हो तो निश्चित किसी न किसी गुणी को ही देखना पडेगा । और हमें यही तकलीफ है । गुण चाहते हैं, गुण देखना भी चाहते हैं लेकिन गुणी को देखना नहीं चाहते हैं । गुणी को देखने पर राग-द्वेष-ईर्ष्या-द्वेष-मत्सर वृत्ति सामने आ जाती है । इससे आवृत्त हो जाने से हमारी दृष्टि वैसी बन जाती है । इसलिए फिर गुण दिखते ही नहीं है । गुण होते हुए भी दोष दिखाई देते हैं, ईर्ष्या-द्वेष की वृत्ति के कारण । संसार में ४ प्रकार के लोग हैं- १) गणी में गुण होते हए भी दोष देखनेवाले । २) गुणी में गुणों को ही देखनेवाले । ३) दोषी-अगुणी में गुण न होते हुए भी गुण देखनेवाले ४) दोषी-अगुणी में दोष देखनेवाले। इन चार प्रकार के जीवों में पहले नंबर का जीव- जो गुणवान गुणी महापुरुष में गुणों का ढेर पडा हुआ होते हुए भी... देखनेवाला अपनी ईर्ष्या-द्वेष दृष्टि के कारण गुण देखने के लिए तैयार ही नहीं है। ऐसे जीव... सर्वथा अहितकारक हैं। ज्यादा कर्म बांधनेवाले हैं । संसार में परिभ्रमण करनेवाले हैं। दूसरे नंबर का जीव सर्वश्रेष्ठ साधक है । वह गुणी-गुणवान महापुरुष में गणों को देखकर आगे बढता है । ऐसे बहुत विरल होते हैं, लेकिन सर्वथा अभाव नहीं है । तीसरे क्रम पर रहनेवाले जीव... और नीचे रसातल में गए हुए हैं । वे गुणवान-गुणी को देखने के लिए तैयार ही नहीं है । उल्लू की तरह अन्धे हैं । वे सोने की चमक पीतल में देखना चाहते हैं। हीरे की चमक कांच के टुकड़ों में देखना चाहते हैं। इसी तरह दोषी-दुर्गुणी-अगुणी दुष्ट के अन्दर गुणों को संभव करने की कोशिश करते हैं । इसलिए ऐसे लोगों को कभी भी गुण देखने भी नहीं मिलते हैं और उनमें गुण आते भी नहीं हैं। गुणात्मक विकास ३१९
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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