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जीवों के साथ के व्यवहार में भी उनके गुण देखने की और अपने दोष देखने की आदत पड जाय तो बहुत लाभ होगा। सचमुच, देखा जाय तो सच्चे आराधक का-साधक का यही लक्षण है। गुण या दोष देखने से आते हैं
बच्चा जो दूसरों का देखेगा वह सीखेगा। वैसा करेगा । कर्म के उदय वश हमारी आदत दूसरों के दोष देखने की है । अतः हमेशा इसी आदत के अधीन होकर हम दोष देखते ही रहते हैं । इससे हमारी दृष्टि दोषदृष्टि ही बन गई है । मनोविज्ञान का नियम ऐसा है कि आप जो जितना ज्यादा देखोगे उतने ज्यादा वैसे संस्कार आपमें आएंगे। इससे हमारा जीवन वैसा दोषपूर्ण बन जाएगा । दोष विकास के अवरोधक हैं-बाधक हैं । आत्मा का विकास मात्र गुणों से ही है। उसमें दोष बीच में बाधक बनकर आगे प्रगति करने ही नहीं देंगे।
आज T.. देखने का अतिरेक हो चुका है । ऐसा मन मोहनेवाला है कि .. छोटे से बडे सबका मन वहाँ चिपका रहता है । अश्लील, बीभत्स, उत्तेजक दृश्य देखकर आज लाखों-करोडों लोगों ने अपना मन बिगाडा है । अपना जीवन बिगाडा है । अपना ही क्या औरों का भी जीवन बर्बाद किया है । आप बार-बार देखेंगे तो एक बार तो वैसा करने का मन होगा ही। कभी न कभी तो मन वैसा करने के लिए तडपेगा । और उस तड़पन के आधार पर आखिर कमजोर मनवाला वैसा पाप कर ही बैठेगा। इसलिए देखना और देखने से सीखना, और सीखकर करना यह संसार की प्रक्रिया चल ही रही है । इसमें तो जिन्दगी बीत रही है । लाखों-करोडों की बीत रही है।
यदि गुण देखने के थोडे भी संस्कार बनाए होते तो निश्चित गुण आते जीवन में और गणों को देखकर सीखकर दूसरों को भी वेसे गुणवान बनाने का प्रयत्न कर सकते थे। अतः आज के इस काल में... आवश्यकता है अच्छा ऊँचा गणियल समाज बनाने की। चुन-चुन कर अच्छे ऊँचे गुणवालों को लेकर, इकट्ठे करके सुंदर गुणियल समाज निर्माण करें । संसार के लिए यह गुणियल समाज एक आदर्श बनें । इसका आदर्श लेकर दूसरे भी गणियल बनेंगे तो उन्हें भी फायदा होगा। अतः गुण देखने हैं तो पहले खराब देखने की आदत बन्द करनी ही पडेगी । ज्यादा से ज्यादा गणों को देखने की प्रवृत्ति बढानी ही पडेगी । इस गुण दर्शन की प्रवृत्ति करने में संसार में सर्वोपरी गुणवान यदि कोई हो तो वे एक मात्र परमात्मा ही हैं। देव के बाद गुरु का क्रम आता है। देवाधिदेव परमात्मा
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आध्यात्मिक विकास यात्रा