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________________ ही जाय । मात्र प्रेम ही नहीं बढता है... भक्त और भगवान के बीच भेद कम होते होते अभेद आने लगता है। भक्त भगवान जैसा बनने लगता है । गुण दर्शन ही सच्चे दर्शन हैं जैसे दर्पण में मुख देखते हैं, आखिर क्यों देखते हैं ? उसमें अपने मुख पर कोई अव्यवस्थितपना हो तो उसे दूर कर सुव्यवस्थित कर सकें । अपनी क्षति - भूल दूर करके सुन्दरता बढा सकें । यही हेतु यदि प्रभु दर्शन की प्रक्रिया में उपयोग में लाएं, दर्शन शुद्ध हो जाएं । प्रभु की प्रतिमा को सामने दर्पण मान लें और हम देखनेवाले दृष्य हैं । प्रभु और प्रतिमा में अभेदभाव है । दर्पण में मुख देखा जाय और प्रतिमारूपी दर्पण में स्वआत्मदर्शन करें। अपनी आत्मा के गुण दोष देखना है । अपनी आत्मा में गुण तो नाममात्र या अंशमात्र भी है या नहीं ? यह भी शंकास्पद है । लेकिन हाँ, दोष तो सेंकडों भरे हुए हैं। परमात्मा गुणों के भण्डार हैं । अनन्त गुण हैं । जब मैं प्रभु के गुण देखूँ तब तुलना में वे और वैसे गुण जब मेरे में नहीं हैं, उनका अभाव है, तब दोष जरूर हैं । इसलिए दर्शन की इस प्रक्रिया प्रभु के गुणों को देखना है और अपने दोषों को देखना है । यह शुद्ध दर्शन की प्रक्रिया है । देवचन्द्रजी महाराज कहते हैं कि— स्वामी गुण ओलखी, स्वामी ने जे भजे । दरिशन शुद्धता तेह पामे ॥ यह दर्शन हुआ । अब आगे की प्रकिया प्रारंभ करनी है। अपने एक-एक दोष कम करते हुए ... एक एक गुण अपने में बढाना है, विकसित करना है । सब गुण परमात्मा में भरे पडे हैं अतः परमात्मा गुणों के आश्रयस्थानरूप आधारभूत होने से आलंबन है । बिना कहाँ मिलेंगे ? कहीं नहीं । अतः परमात्मा की ही शरण लेनी पडेगी । और वहाँ गुणदर्शन - स्वदोषदर्शन का कार्य करना ही पडेगा । हमने आज दिन तक सबसे बडी गलती ऐसी की है कि.. दूसरों के दोष देखने की और अपने गुण देखने की आदत पडी हुई है। मोहनीय कर्म के तीव्र उदय के कारण ऐसी आदत रूढ हो जाती है । यही अच्छा लगता है। लेकिन यह सर्वथा गलत है । कर्म बंधकारक है । इसी कारण सही अर्थ में सच्चे दर्शन हो ही नहीं पा रहे हैं । अब यदि सच्चे दर्शन करना ही हो तो इस आदत को उल्टा करना पडेगा । अर्थात् अपने दोष देखने और परमात्मा के गुण देखने पडेंगे । बार बार प्रतिदिन इस तरह करते रहने से ... आदत पडेगी ... और इसी आदत के अनुरूप व्यवहार करने पर ... संसार के क्षेत्र में अन्यत्र भी सभी गुणात्मक विकास ३१७
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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