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________________ गुणात्मक संबंध से सादृश्यता पंच परमेष्ठी भगवंत जो गुणों से परिपूर्ण-संपूर्ण है, गुणों का खजाना है, उनमें जो गुण हैं, जैसे गुण हैं, जितने गुण हैं वे सभी गुण त्रैकालिक शाश्वत होने से हमारी आत्मा में भी सत्तारूप से पडे हुए ही हैं । गुणों का सत्तास्वरूप अस्तित्व हमारे में सदा काल से है ही । मात्र कर्म के आवरण से दबे हुए हैं । कर्मों का प्रमाण गुणों से बहुत ज्यादा मात्रा में होने के कारण ... गण दब जाते हैं । लेकिन सत्ता से तो सभी गुणों का अस्तित्व हमारी सभी की आत्मा में है ही । मात्र प्रकट करना है। इस दृष्टि से हमारी संसारी पामरात्मा की परमात्मा के सत्तारूप अस्तित्व के कारण सादृश्यता है । जो जो स्वरूप सिद्धों का अरिहंतों का है, जिन जिन गुणों का प्रादुर्भाव उनमें हुआ है वे सभी गुण हमारे में पड़े हुए हैं । तिरोहित हैं । आच्छन्न हैं। द्रव्य रूप से हमारी आत्मा परमात्मा जैसी ही है । और गुणों की दृष्टि से भी सत्तारूप से ठीक वैसी ही है । फरक इतना ही है कि उनकी आत्मा में सभी गुण प्रकट हो चुके हैं। जबकि हमारी आत्मा में वे गुण अभी तक प्रकट नहीं हुए हैं । इसलिए वे सर्वगुणी हमारे आराध्य-उपास्य देव हैं। हम उनके आराधक हैं । वे साध्य हैं और हम साधक हैं। हमारा और परमेष्ठियों का क्या संबंध है? मात्र गुणात्मक संबंध है । गुणों को ग्रहण करने का संबंध है । वे गुण के खजाने के स्वरूप हैं इसलिए उनमें से हमको गुण ग्रहण करने हैं। उनका गुण देने का और हमारा लेने का संबंध है। हम ग्राहक हैं-लेनेवाले । इसलिए परमात्मा के साथ वेसा संबंध बांधकर बैठे हैं । भक्त भगवान के साथ गुणग्राहकता का संबंध बांधकर बैठा है। तभी वह सच्चा भक्त कहलाएगा। हम परमात्मा की आराधना क्यों करते हैं ? क्योंकि गुण सभी उनमें पडे हैं । हमको लेने हो तो कहाँ से लें? इसलिए गुणों को प्राप्त करने के लिए के बहाने हम गुणी परमेष्ठियों की आराधना-उपासना करते हैं । अतः यहाँ पर परमेष्ठी भी साधन बन जाते हैं और गुणप्राप्ति साध्य बन जाती है । इसलिए गुणोपासना मुख्य साधना है । भक्ती के भाव में भक्त भगवान को प्रार्थना करता हुआ कहता है कि "गुण अनन्ता सदा तुज खजाने भर्या। एक गुण देत मुज शुं विमासो॥" हे भगवान् ! आपके गुणरूपी खजाने में अनन्त गुण भरे पडे हैं उसमें से मुझे एक गुण देने में आप क्यों संकोच अनुभव रहे हैं ? आप क्यों हिचकिचा रहे हो? यह भक्ती की भावना है । भक्ती वह है जिसमें भक्त के दिल में भगवान के प्रति प्रेम उत्तरोत्तर बढता ३१६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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