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________________ पंच परमेष्ठी भगवंतों के १०८ गुण होने के कारण जाप हेतु माला के मणके भी १०८ ही रखे जाते हैं । यह निर्धारित स्वरूप है । अतः १०८ मणके की माला गिनते समय प्रत्येक मणके पर उन उन परमेष्ठी के गुणों का स्मरण करते हुए नमस्कार करते जाना है । इससे भाव ऐसे बनने चाहिए कि ये गण अपने स्वरूप से शाश्वत-नित्य है... अतः मेरे में भी कब ऐसे गुण आए? मेरे में भी ऐसे गुणों का विकास हो । मैं भी इन गुणों का धारक बनूँ । गुणात्मक स्वरूप मेरा भी प्रकट हो । अतः गुणों को लाने के लिए गुणधारियों का आलंबन लेकर स्मरण-जापादि करना है । गुण-गुणी का अभेद संबंध होने से गुणों की उपासना गुणी महापुरुषों को सामने रखकर ही करनी है । गुण शाश्वत हैं । अतः गुणी महापुरुष भी शाश्वत हैं। लेकिन एक नामधारी व्यक्ती अपने आयुष्यकाल की सीमित अवधि के कारण शाश्वत–नित्य नहीं बन सकता है । अतः एक गुणी के समानान्तर दूसरे गुणी, उनके जैसे तीसरे, उनके जैसे चौथे इस तरह एक के पीछे एक की परंपरा चलती है। अतः व्यक्ति से भी पद बडा है । पदस्वरूप में सभी का समावेश हो जाता है । अतः नवकार में गुणों के आधार पर गुणियों की पदरूप स्थापना है । व्यवस्था है। यदि व्यक्ति विशेष का ही नाम लिखा जाय तो सर्वज्ञ-वीतराग में तो आपत्ति नहीं आएगी लेकिन छद्मस्थ किसी व्यक्ति विशेष में-सर्व गुण हो या न भी हो, कुछ कम गुण भी हो तो क्या करें? अतः पदवाची व्यवस्था रहने पर सभी गुणों की परिपूर्णता सबके हिसाब से बैठ जाती है । इन १०८ गुणों का स्मरण करते हुए, गुणों के आधार पर उनके धारक गुणी भगवंतों को गुण प्राप्ति हेतु यदि नमस्कार किया जाय तो ऐसा भाव नमस्कार हमारी आत्मा को भावित कर सकता है । करना यही चाहिए । इसी तरह करना चाहिए। यही शुद्ध पद्धति है । परन्तु अज्ञानवश एक भी गुण को न जाननेवाले और कभी भी गुण का विचार मात्र भी न करने वाले माला जाप करते रहेंगे और फिर शिकायत करते रहेंगे कि हमारा मन बिल्कुल ही माला में नहीं लगता है, उल्टे ज्यादा खराब विचार आते हैं। अब आप ही सोचिए खराब विचार नहीं आएंगे तो क्या होगा? अगर इससे बचना है तो आज ही गुणों को समझना शुरु करिए, गुणात्मक स्वरूप स्पष्ट करिए... जानिए... मानिए ... फिर वैसी माला गुण-स्मरणपूर्वक की शान्ति से गिनने लगिए... भाव बनाइए... फिर देखिए आपकी शिकायत कितनी जल्दी अदृश्य होती है । लेकिन... हाँ, ... करने से ही होगा। बिना किये कोई जादू-चमत्कार नहीं होगा। प्रयत्न साध्य साधना सफल होती है । सिद्धि दिलाती है। गुणात्मक विकास ३१५
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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