________________
हम दोषों को न फैलने दें और गुणों की ही गरिमा बढाएं - गुणों की सुवास फैलाएं तो काफी अच्छा होता है ।
किसी की मृत्यु के पश्चात गुणानुवाद की सभा मरनेवाले के पीछे आयोजित की जाती है। दोषानुवाद की सभा का आयोजन कोई भी सज्जन व्यक्ति कभी भी नहीं करता है । यह मानवी स्वभाव की विकृतियों से रास्तों पर या बाहर हो ही जाती है । गुणानुवाद नहीं होता है । अतः सभा का विशेष रूप से आयोजन किया जाता । उसमें
वर्णन किया जाता है । गुणवर्णन में भी वास्तविकता का ध्यान रखना चाहिए । आज तो उसमें भी कृत्रिमता घुस गई है । इसलिए आज गुणों के वर्णन ने भी वास्तविकता से हटकर खुशामद का रूप ले लिया है। खुशामद में तो गुण हो या न भी हो तो भाट चारणी पद्धति से गुणों का नाम निर्देश करके आरोपित कर दिया जाता है । इस भाट चारणी पद्धति अपनाने में भाडे पर किराएदार खुशामद करनेवाले खडे कर दिये हैं । पैसे देकर लोग प्रशंसा करवा लेते हैं। यह कहाँ तक उचित है ? इसी तरह बुराइयाँ - कृत्रिमता बढती जाती है जो समाज में व्यापक बनती जाती है । यह संक्रामक रोग की तरह फैल जाती है । बुराई व्यापक बनने पर सारा स्तर गिर जाता है । अतः गुणात्मक व्यवहार बढाना चाहिए । समाज में गुणों की प्रतिष्ठा होगी । गुणों की महिमा बढेगी । गुणों की आवश्यकता महसूस होगी ।
"नवकार” में गुणात्मक पद
1
जैन शासन का महान मन्त्र है- "नमस्कार महामंत्र" । इस महामन्त्र में किसी भी भगवान या गुरु आदि का नाम ही नहीं है । अतः व्यक्तिगत महत्व नहीं है । व्यक्ति विशेष को प्राधान्यता नहीं है । भ. महावीर का ही नाम लिखकर मन्त्र बनाते - " नमो महावीराणं” तो भी मन्त्र बन सकता था, लेकिन ऐसा करनेपर एक मात्र भ. महावीर को ही नमस्कार होता । अन्य तीर्थंकर आदिनाथ शान्तिनाथ को नमस्कार नहीं होता । फिर उनके लिए अलग नवकार मंत्र बनाना पडता । नमो आदीश्वराणं अलग करना पडता । इस तरह हम कितने नवकार महामंत्र बनाते ? फिर भूतकालीन चौबीशी - भविष्य की चौबीशी आदि सब भगवानों के नाम के कितने अलग अलग मंत्र बनाते ?
"C
अतः सबसे श्रेष्ठ इस महामंत्र नवकार को गुणवाचक बनाया । अरिहंत । अरि आत्मशत्रु - कर्म । हंत का अर्थ है- नाश करना। अरिहंत- अर्थात् जिन्होंने भी अपने अन्तरशत्रु- क्रोध, मान, माया, लोभ, कामादि आत्मशत्रुओं का सर्वथा - संपूर्ण रूप से नाश किया है वैसे अरिहंत परमात्मा को नमस्कार हो । इस स्वरूप में किसी का नाम न होते
गुणात्मक विकास
३११