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________________ पचिन पिण्डरूप है फिर क्यों नहीं ज्ञान आया? फिर वहाँ नैयायिक कहेंगे कि ईश्वर की इच्छा। बस ईश्वर की इच्छा के बहाने के नीचे अपने अज्ञान को, विकृतविपरीत-मिथ्याज्ञान को भी उन्होंने सच्चे ज्ञान की मुहर लगा दी और ज्ञान के बाजार में इसे भी बेचना शुरू कर दिया। आखिर बाजार तो अज्ञानियों का मेला होता है । वहाँ कई लोग ऐसे अज्ञान के माल को भी खरीदनेवाले मिल ही जाएंगे। वाह ! अज्ञान के भी अनुयायी बन गए ... अब फिर क्या चाहिए? गधे के भी पंख आ जाय तो वह भी आकाशी सैर करने लग जाय वैसी स्थिति है। नास्तिक-चार्वाकों ने भी पंचभूत के संमिश्रण में मदशक्ती की तरह उत्पन्न होती हुई आत्मशक्ती विशेष माना । इसलिए इतने अंश में नैयायिकों ने भी जड परमाणु में ज्ञानशक्ती की तरह आत्मा को स्वीकारा । तो नैयायिक और चार्वाक इस अंश में एक जैसे कैसे नहीं होंगे? बौद्ध दर्शनवादी तो इस मैदान में से बाहर ही भाग गए। उन्होंने आत्मा को मानने की झंझट ही मोल नहीं ली। इसलिए आत्मा के अभाव को लेकर नैरात्म्यवाद की बातें करने लगे। अफसोस और आश्चर्य तो इस बात का है कि... आत्मादि द्रव्यों संबंधी सत्य ज्ञान-चरमकक्षा का सम्यग्ज्ञान उन्हें स्वीकारने में क्या तकलीफ आती है ? क्यों तकलीफ आती हैं? जबकि सर्वज्ञ महावीर का चरम सत्य आज भी उपलब्ध है। सत्य को न स्वीकारनेवालों को अज्ञानवादी कहा जाता है । अतः सही सच्चे मार्ग पर आना ही चाहिए और प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप में जो जैसा है उसे ठीक वैसा ही यथार्थ-वास्तविक स्वरूप में जानना-मानना चाहिए। जड-चेतन के गुणों का वर्गीकरण- . - गुण-गुणी का नित्य अभेद संबंध समझने से पदार्थ की वास्तविकता का सत्य स्वरूप ख्याल में आ जाता है। आत्मा के गुणों और जड के गुणों का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करना ही चाहिए। दोनों की स्वतन्त्र–भिन्नता का ख्याल हो जाने से भ्रान्ति-भ्रमणा और शंका को स्थान ही नहीं रहेगा। निर्धान्त ज्ञान ही तारक बनता है । साधक बनता है। गुणभेदक होता है । गुण ही दो या दस पदार्थों के बीच भेद करता है । यहाँ जड और चेतन के बीच भी यदि भेद देखना हो तो गुणों के कारण ही संभव हो सकेगा। उदाहरणार्थ आत्मा और धर्मास्तिकाय आदि 'द्रव्यों में गुण की विवक्षा न करें तो द्रव्य स्वरूप से काफी सादृश्यता दिखाई देती है। जैसे असंख्य–अखण्ड प्रदेशों के समूह का पिण्ड है। धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय एक मात्र गुण के सिवाय शेष सभी बातों में समान रूप ही गुणात्मक विकास ३०९
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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