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गुणों का अस्तित्व
ऐसा उपरोक्त दृढ निर्धार हो जाना चाहिए । बस ऐसे दृढ निर्धार के बाद अब तो ज्ञान बढाने का ही काम करना है । गुणों का अस्तित्व है ही... मात्र कर्मावृत्त स्थिति में है । अस्तित्व का अर्थ है कि ... तीनों काल में उसकी सत्ता है सही । यह निःसंदेह है। कभी भी अस्तित्व न हो ऐसा अभाव का दिन ही नहीं है। अतः अस्तित्व सत्ता हमें आशावादी बनाती है । अभाव निराश करता है । इसलिए सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने ज्ञानादि गुणों की आत्मा में त्रैकालिक सत्ता मानकर चेतन द्रव्य को गुणमय ही बताया है । गुणरहित एक क्षण भी नहीं। अन्य दर्शनों में आत्मा
___ अफसोस और आश्चर्य तो इस बात का है कि नैयायिक दर्शन ने उत्पन्नावस्था में द्रव्य को निर्गुण कहा है । वहाँ परमाणुवाद है । अतः आत्मा भी परमाणु संचय से उत्पन्न होती है । परमाणु सभी जड हैं । वे निष्क्रिय हैं। ईश्वर की इच्छा से परमाणु एकत्रित होते हैं। वे इकट्ठे होते हैं। व्यणुक-त्र्यणुक-चतुर्गुक बनते हैं और अन्त में संख्यात-असंख्यात परमाणु प्रचय का पिण्ड होता है । तब वह आत्मा द्रव्य कहलाता है । जड परमाणुओं के पिण्ड रूप द्रव्य आत्मा में अब द्वितीय क्षण में ज्ञानादि गुण आएंगे। तब तक वह ज्ञानरहित जड परमाणुओं के पिण्ड रूप है । अब वह ज्ञान कहाँ से आएगा? कैसे आएगा? इसका कोई उत्तर नहीं है । और ऐसे ज्ञान आ जाता तो कुछ रेती के कण इकट्ठे करके उसमें ज्ञान का संक्रमण करके देखिए आता है क्या? कभी भी नहीं । लेकिन नैयायिक दर्शनवादी इस एकान्तिक मान्यता को मानकर ही चलते हैं। जब कोई अज्ञान को ज्ञान, और भ्रान्ति-भ्रमणा को यथार्थ-वास्तविक मानकर चले तो उसके लिए क्या उपाय है?
सर्वज्ञ-वीतरागी महावीर परमात्मा कहते हैं कि यह सर्वथा गलत विचार है नैयायिकों का । जड परमाणु से चेतन द्रव्य बनता ही नहीं है । चेतनात्मा सदाकाल कालिक सत्य एवं सिद्ध है। आत्मा स्वतंत्र ही द्रव्य है। यह अनुत्पन्न अविनाशी द्रव्य है । फिर उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं खडा होता है तो नाशादि की तो बात ही कहाँ रही? और जब उत्पन्न ही नहीं होता है तो फिर जड परमाणुओं से उत्पन्न होने की बात ही कहाँ रही? जड जो ज्ञानादि रहित है उनमें ज्ञानादि गण कैसे आ जाएंगे? क्यों आएंगे? किसी के निवेश करने पर भी ईट-चूने-पाषाणादि में कभी नहीं आए? ईट परमाणुओं का ही
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आध्यात्मिक विकास यात्रा