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________________ एक ही है । सिर्फ दोनों बाजू की छाप भिन्न-भिन्न है । दोनों की भिन्नता होते हुए भी सिक्के के रूप में एकरूपता है । ठीक वैसे ही ज्ञान - दर्शनादि गुणों की और आत्मद्रव्य की एकरूपता है । तत्त्वार्थकार गुण का लक्षण बांधते हुए व्याख्या करते हैं कि “ द्रव्याश्रयी निर्गुणा: गुणाः” अर्थात् द्रव्य के आश्रित रहनेवाले और स्वयं निर्गुण ऐसे गुण होते हैं । निर्गुणाः का तात्पर्य यह है कि जो ज्ञान- - दर्शन आदि गुण हैं उनपर फिर और अन्य गुण आकर नहीं रहते हैं । अतः ये निर्गुण कहलाते हैं । ये स्वयं गुण है जो द्रव्य के आधार पर रहते हैं । अतः आश्रित हैं । द्रव्य के बिना गुण कभी रह ही नहीं सकते हैं । जगत में सबको रहना भी है तो आधार तो चाहिए ही । आधार के बिना कोई रह ही नहीं सकता है । इसी तरह गुण जो द्रव्य स्वरूप नहीं है उन्हें रहने के लिए आधार - आश्रय - द्रव्य का ही चाहिए । जैसे आकाश द्रव्य सबका आधार भूत-आश्रय है, बिना आकाश के जगत् का एक परमाणु भी नहीं रह सकता है, वैसे ही गुणों के लिए आधारभूत आश्रयस्थान एक मात्र द्रव्य ही • है। ज्ञानादि गुणों के लिए आधारभूत आश्रयस्थान एक मात्र आत्मा - चेतन द्रव्य ही है वर्ण-गंध-रस- - स्पर्शादि गुणों के लिए आधारभूत - आश्रयस्थान एकमात्र पुद्गल द्रव्य ही है। अतः गुण द्रव्य के बिना और द्रव्य गुण के बिना कदापि नहीं रह सकते हैं । गुण गुणी का अभेद संबंध त्रैकालिक नित्य है 1 1 जैसे वर्ण-गंध-रस - स्पर्शादि गुण पुद्गल द्रव्य को तीनों काल में भी कभी छोडते ही नहीं है, छोडौं ही नहीं सकते हैं, सदा ही उसके साथ रहते हैं, वैसे ही ज्ञान- - दर्शनादि सभी गुणों का आत्मा के साथ निश्चित नित्य संबंध है । यह भी त्रैकालिक शाश्वत नित्य संबंध है । एक भी आत्मा कभी भी - एक क्षण भर भी ज्ञान - दर्शनादिरहित रही नहीं है और कभी भी नहीं रहेगी। हाँ, फरक इतना ही है कि.. किसी आत्मा में महासागर की एक बूंद जितने प्रमाण में ज्ञान प्रकट है और किसी जीव विशेष सर्वज्ञ प्रभु में ज्ञान अनन्त । अगाध समुद्र के जितना ज्ञान भरा पडा है । वे सर्वज्ञ - केवली हैं। निगोद - सिद्ध-सर्वज्ञ सब का ज्ञान सत्ता में, सत्ता के प्रमाण से तो एक समान है, एक जैसा ही है। मात्र सर्वज्ञ का ज्ञान निरावरण है जबकि निगोद के जीव का ज्ञान सावरण-ज्ञानावरणीय कर्म से आच्छादित - ढका हुआ है । तिरोभूत है । लेकिन ज्ञान गुण के अस्तित्व की दृष्टि दोनों में ज्ञान का अस्तित्व जरूर है । अतः आत्मा कभी ज्ञानरहित हुई नहीं, और रही नहीं, न कभी रहेगी । यह त्रैकालिक नित्य-सत्य स्वरूप है। I 1 I गुणात्मक विकास ३०७
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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