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गुणोपासना ही धर्म है
उपरोक्त स्वरूप को समझने से स्पष्ट ख्याल आता है कि... गुणों की उपासना करना ही श्रेष्ठ सर्वोत्तम धर्म है। व्यवहारात्मक क्रियात्मक-आचारात्मक धर्मों का प्राथमिक आचरण करते हुए भी चरम लक्ष्य गुणों की प्राप्ति पर रखना चाहिए । मानसिक निश्चय होना ही चाहिए कि मुझे मेरे गुणों को प्राप्त करना ही चाहिए । स्व अर्थात्-आत्मा और आत्मा के ज्ञान-दर्शनादि उन गुणों को प्राप्त करने के लिए जो पुरुषार्थ करना उसी का नाम धर्म है । या फिर आत्मा के तथाप्रकार के गुणों को ढकनेवाले आच्छादक कर्मों का क्षय करने के लिए जो पुरुषार्थ करना उसी का नाम धर्म है । या दोनों को मिलाकर भी धर्म की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि- आत्मा पर लगी हुई कर्मों की अशुद्धि का निवारण करना और आत्मा की शुद्धि को प्रकट करना ही वास्तविक धर्म है । इसके लिए जो भी उपाय किया जाय, जिस तरह का प्रयत्न–पुरुषार्थ किया जाय वह धर्माचरण है। धर्म की प्रकिया है । धर्म की इस व्याख्या को समझकर आगे बढिए... जीवन में कभी नुकसान नहीं होगा।
कर्म का क्षयोपशम और गुणों का प्रगटीकरण दोनों सहभू-साथ ही होने वाली क्रिया है । इसलिए गुण प्रकट करते हुए गुणों की उपासना की क्रिया करते रहने से कर्मावरण का क्षय-क्षयोपशम होगा और कर्मावरण का क्षय-क्षयोपशम करते रहने से गुणों का प्रादुर्भाव होता ही रहेगा। जैसे सूर्य का उदय होते ही प्रकाश होता है और प्रकाश होने लगा कि सूर्य का उदय होता ही है, वैसी दोनों साथ ही होने वाली क्रिया है । वैसा ही यहाँ भी समझना चाहिए। यह आध्यात्मिक धर्म है। आत्मिक धर्म है। आज इस प्रकार के धर्म का स्वरूप तथा आचरण प्रतिशत प्रमाण में काफी कम होता जा रहा है और दूसरी धामधूम धमाधम काफी प्रमाण में बढ़ती जा रही है । जिसमें वास्तविकता का दर्शन बहुत कम होता है । अतः गुणों की गरिमा गुणों की महिमा अवश्य समझनी ही चाहिए।
गुण गरिमा-गुण महिमा
इसी कारण गुणों की गरिमा है । गुणों की महिमा काफी ज्यादा है । गुण द्रव्य के बिना नहीं रहते हैं और द्रव्य गुण के बिना नहीं रहता है । अतः द्रव्य-गुण का गुण-गुणी का अभेद संबंध है । एक ही सिक्के की दो बाज के जैसी स्थिति है । सिक्का अपने आप
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आध्यात्मिक विकास यात्रा