SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का अन्त नहीं आता है। संकोच-विकासशील स्वभावविशेष के कारण आत्मप्रदेश संकुचित-विकसित जरूर होते रहते हैं । परन्तु खण्डित होकर अलग नहीं होते हैं। इन आत्मप्रदेशात्मक द्रव्य रूप आत्मा के प्रत्येक प्रदेश गुणाच्छादित ही हैं। ज्ञान-दर्शनादि गुणों से भरपूर हैं । ऐसे आत्म प्रदेशों के गुणों पर जब कर्मावरण छा जाते हैं तो उसके गुण दब जाते हैं । ढक जाते हैं । कर्मावृत्त आत्मा की स्थिती बादल से ढके हुए सूर्य के जैसी हो जाती है । गुण ढकने के बाद तो कर्म के आवरण का स्वरूप ही सामने आएगा। सूर्य के ढक जाने से जैसे बादलों की छाया ही सामने आएगी। वैसी ही स्थिति होगी आत्मा की । अब व्यवहार गुणों का नहीं कर्म के दोषों का होगा। कर्म की छाया के व्यवहार से आत्मा कर्म के नाम पर पहचानी जाएगी । जैसे यहाँ कोई अच्छा-बड़ा आदमी भी यदि चोरी करके चोर के नाम से ही पहचाना जाय, उसकी छाप लोक व्यवहार में चोर की हो जाती है । बस, लोग उसे उसी नाम से पहचानने लग जाते हैं । व्यवहार में बोलने लग जाते हैं। वैसे ही कर्म नामक चोर के आत्मा पर लग जाने से आत्मा अब अपनी वास्तविक पहचान से नहीं पहचानी जाती है परन्तु कर्म की छाया से ग्रस्त स्थितिवाली पहचानी जाती है । बस, कर्म की छाप ही आज हमारी बडी गाढ हो चुकी है। इसीलिए आज कोई चोर, कोई क्रोधी, मानी, मायावी, ठग, लोभी, रागी, द्वेषी इत्यादि सेकडों तरहों से पहचाने जाते हैं । अशुभ कर्मों की छाप में, संगत से तो पतन ही है । विनाश ही है। विकास कैसे होगा? ऐसा अपना स्वरूप और ऐसी अवदशा अपनी पहचान लेने के पश्चात, अब इसी बंधन से मुक्त होने का आत्मा का लक्ष्य बनना चाहिए । जैसे एक कैदी का सतत जेल से छूटने का लक्ष्य होता है। एक पिंजरे में बन्द पशु-प्राणी का सतत छुटकारा पाने का ही सदा लक्ष्य होता है, और इसीलिए पिंजरे में भी सतत चक्कर लगाकर छुटकारा पाने के लिए पुरुषार्थ करता ही रहता है। वैसे ही इस चेतनात्मा को भी प्रतिक्षण इस कर्म रूपी पिंजरे में से मुक्त होने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करते ही रहना चाहिए। प्रतिक्षण यही लक्ष्य होना चाहिए। जब कर्मरूपी बादल जितने अंश में आत्मा के ऊपर से हटेंगे... उतने अंश में आत्मा के अपने गुण प्रकट होंगे । अनन्त बीते हुए काल में जिसका आस्वाद भी जीव को कभी नहीं हुआ ऐसे आत्मा के अपने वास्तविक गुणों का आस्वाद अब पहली बार होगा। ३०४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy