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होते हुए भी हम देख नहीं पाते हैं । सूर्य अपने तेज से प्रकाशित होने पर भी बादलों का आवरण उस पर आ जाने से प्रकाश आवृत्त हो जाता है । और उसका विरोधी धर्म बाहर छा जाता है— अन्धेरा। वैसे ही द्रव्य रूप से अस्तित्व धारक आत्मा ज्ञानादि गुणों से परिपूर्ण है । परन्तु जब हम कर्म करते रहते हैं तब हमारी आत्मा तथाप्रकार की पाप-पुण्य की प्रवृत्ति से कर्म लिप्त हो जाती है। दिवाल पर रंग लगने से जैसे दिवाल का वास्तविक स्वरूप छिप जाता है ठीक वैसे ही आत्मा का वास्तविक स्वरूप भी उस कर्म के आवरण से छिप जाता है। जैसे कोई लेप लगाकर विलेपन करके अपनी चमडी की करूपता को छिपाकर और नया ही सुंदर रूप निखार देता है। वैसे ही आत्मा का रूप रंग भी बदल जाता है । द्रव्य स्वरूप में तो आत्मा मात्र असंख्य प्रदेशी द्रव्य मात्र है। परन्तु अन्दर तो सभी गुण भरे पडे हैं । किस अंश में गुण नहीं है ? सर्वांश में हैं। __जैसे कपडे का १०० मीटर लंबा एक ताका (थान) कितना भी लंबा होता है आखिर तो धागों-तन्तुओं का बना हुआ समूहात्मक पिण्ड है । वही द्रव्य स्वरूप है । परन्तु संपूर्ण ताके में किस तन्तु-धागे में सफेदी का गुण नहीं है ? क्या एक भी तन्तु ऐसा है जो सफेद नहीं है ? जी नहीं । प्रत्येक तन्तु अपने आप में पूर्ण सफेद गुण व्याप्त है । व्यक्तिगत जिस गुण में व्याप्त है वही समष्टिगत-समूहात्मक रूप में भी उसी गुणों से व्याप्त ही दिखाई देगा। ठीक इसी तरह आत्मा चेतन-द्रव्य के भी असंख्य प्रदेश कपडे के तन्तु की तरह है । वे सभी अखण्ड रूप से मिले हुए हैं । यही उनकी विशेषता है।
यदि एक-एक प्रदेश अलग होते-होते बिखरते ही गए होते, तो तो आत्मा का सर्वथा लोप कभी का हो गया होता । फिर नित्यता-शाश्वतता किस अर्थ में रहती? आत्मा के प्रदेश तो मात्र असंख्य ही हैं। और भूतकाल अनन्त गुना बीत चुका है । यदि एकएक जन्म में एक-एक प्रदेश भी कर्मवश बिखर चुका होता तो... कब का यह चेतन द्रव्य समाप्त हो चुका होता । तो फिर शेष क्या रहता? लेकिन वैसा हुआ नहीं । क्योंकि आत्मा के प्रदेशों की रचना वैसी नहीं है । अखण्ड स्वरूपता आत्मप्रदेशों की शाश्वत है। सदा नित्य है । अतः एक प्रदेश भी बिखरता ही नहीं है । अलग हो ही नहीं सकता है । भले ही जीव अनन्त बार नरक गति में जाय... और परमाधामी अनन्त बार भले ही छेदन-भेदन करे । काटे अंगो-पांग काट कर फेंक भी दे तो भी आत्म प्रदेशों की अखंडितता की विशेषता के कारण जुड़े हुए ही रहते हैं । टूटकर, खंडित होकर अलग नहीं हो जाते हैं । इसीलिए इस संसार चक्र के अनन्त काल के अनन्त जन्मों में भी आत्मा
गुणात्मक विकास
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