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भव में उस कर्म का उदय न हो तो आगामी जन्मों में... भवों में वह कर्म कारणरूप बनकर नए कर्मों को बहकाएगा। उपार्जन करेगा।
ऐसे कर्मों का क्षयोपशम या क्षय करना ही चाहिए। क्षय नहीं करेंगे तो ये कर्म आत्मा का पीछा नहीं छोड़ेंगे। और जैसे भूतकाल में अनन्त वर्षों का काल बिता दिया वैसे ही भविष्य में भी अनन्तवर्षों का काल और बिता देंगे । पता ही नहीं चलेगा। ___ यद्यपि कर्मों की सबकी अपनी अपनी जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट बंधस्थिति होती है। अतः कर्म होते तो नियत कालीन ही हैं । और इस तरह नियत कालीन कर्म अपने काल की समाप्ति होने पर आत्मा पर से हट जाएं... तो अच्छा है, यह आत्मा अल्प काल में मुक्त हो जाय, सिद्ध बन जाय । लेकिन... ये भूतकाल के कर्म जब उदय में आते हैं तब और नए पाप की प्रवृत्ति करके... नए कर्म उपार्जन करवाते रहते हैं। परिणाम स्वरूप आत्मा को कभी भी कर्म रहित बनने का अवसर ही नहीं मिलता है। जंजीर की तरह ये कर्म एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं । जैसे जंजीर में प्रत्येक कडा स्वतंत्र जरूर है, फिर भी एक दूसरे के साथ जुड़े हुए संलग्न हैं । ठीक वैसे ही प्रत्येक कर्म स्वतंत्र जरूर है फिर भी सभी कर्म एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए-मिले हुए हैं । अतः कर्मों के उदय में आकर क्षीण हो जाने पर, या क्षय हो जाने पर भी आत्मा सर्वथा कर्ममुक्त या कर्मरहित कहाँ हो जाती है ? एक दिन विशेष का कर्म उदय में आकर चला गया लेकिन दूसरे कर्मों का क्या होगा? कर्म की परंपरा चलती है।
जिस तरह प्रति क्षण-क्षण हमनें वैसे पाप की प्रवृत्ति की है । कभी झूठ, कभी चोरी, कभी गाली, कभी क्रोध, कभी मार-पीट आदि कई प्रकार के पापों को करने की प्रवृत्ति हमने कदम-कदम पर की है, उससे समय-समय पर हमने कर्म बांधे भी हैं। जैसे कर्म बांधे हैं वैसे उन कर्मों का उदय भी तो होता ही रहता है। सामान्य रूप से कर्म उदय में आकर अपना सुख या दुःख दिखाकर-भोगकर क्षीण हो जाता है । स्मृतिवाक्य की ध्वनि भी इसी प्रकार ही है- "प्रारब्धकर्माणां भोगादेव क्षयः" । अर्थात् पहले किये हुए कर्मों का भोगने से ही क्षय होता है । कर्म को क्षय करने की प्रवृत्ति हमें सतत करते ही रहना चाहिए। गुणों पर कर्म का आवरण
कई भारी कर्मों के लगने से आत्मा पर एक प्रकार का कर्म का आवरण छा जाता है । जैसे आँखों से हम देखते हैं, परन्तु उस पर कपडा रख दें तो आँखों में देखने की शक्ती
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आध्यात्मिक विकास यात्रा