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आत्मा का अन्तर शत्रु जो कर्म हैं वे आत्मा
आत्मा पर स्तर बनकर जम जाते हैं। जैसे सूर्य पर बादल छा जाने से सूर्य का प्रकाश मन्द पड़ जाता है और अन्धेरे जैसी परिस्थिति छा जाती है । वैसे ही आत्मा पर कर्मों की पपडी जम जाने से आत्मा के गुणों का विकास ही नहीं हो पाता है।
लेकिन एक बात और सच है कि... आखिर ये कर्म किसने बांधे?
आत्मा ने ही तथाप्रकार की पाप की प्रवृत्ति करके वैसे कर्म बांधे हैं, और वे ही उदय में आए हैं । फर्क इतना ही है कि- जब वह बाह्य प्रवृत्ति के रूप में थी तब वह पाप कहलाती थी और जब आत्मा पर पपडी की तरह जम गई तब उसने कर्म संज्ञा पाई । जिस तरह शक्कर जब दूध से बाहर थी तब तक वह कण-कण के रूप में स्वतन्त्र अस्तित्व रखती थी। और जब दूध में घुल गई...मिल गई... तब शक्कर ने कण रूप में अपने रहे हुए स्वतंत्र अस्तित्व को छोड़ दिया और अपने मीठापन का गुण दूध को देकर पूरा दूध मीठा बना दिया । अगर शक्कर के बजाय नमक होता तो पूरे दूध को खारा कर देता और यदि कोई कडवी-कटु चीज होती तो पूरे दूध को कटु-कडवा बना देती। ___ ठीक इसी तरह कर्म आत्मा को वैसा बना देता है । हमने ही शुभ-अशुभ पुण्य-पाप की प्रवृत्ति करके जो कर्म उपार्जन किये हैं वे कर्म आत्मा पर अपना आधिपत्य जमा देते हैं,और आत्मा को अपने अधीन करके वैसे पापादि करने के लिए बाध्य करते हैं । चेतनात्मा उस कर्माधीन अवस्था में अधीर बनकर कर्म कराए वैसे गुलाम की तरह करती है । “कर्म नचावे तिमही नाचत”। किये हुए कर्म चाहे शुभ हो या अशुभ हो अपना प्रभाव तो दिखाएंगे ही । ऐसे पूर्व के प्रबल पुण्य का उदय हो तो... जीव पूर्व के पुण्य का साथ लेकर नया पुण्य उपार्जन करके पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन कर सकते हैं । अन्यथा... पूर्व के पाप का तीव्र उदय होने पर वैसे अशुभ (पाप) कर्म का उपार्जन कराएंगे। पूर्वकाल का या पूर्व भव का शुभ या अशुभ कर्म आज इस जन्म में साथ दे या न भी दें । यदि उदय का काल उस कर्म का इसी भव में हो तो इसी भव में वह कर्म अपना स्वरूप दिखाएगा । और यदि इस
गुणात्मक विकास
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