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शुभ-पुण्य योग विकास साधने की दिशा में प्रगति करनेवाले साधक के लिए अत्यन्त सहायक साधन जरूर है।
द्रव्य पुण्य मात्र बाह्य साधन-सामग्रियाँ उपलब्ध कराने में सहायक बन जाता है । कई बार साधन-सामग्रियों के अभाव में भी अपना विकास नहीं साध सकते हैं । उदा. पूजा के वस्त्र तथा उपकरणादि के अभाव में भी कई जीव पूजा पाठ नहीं कर पाते हैं । ऐसे जीवों के लिए पुण्ययोग से सब साधन सामग्री की उपलब्धि होने पर विकास संभव होता
पुण्योपार्जनकारक नौं प्रकार- .
नौं तत्त्वों का विवेचन करते समय नवतत्त्व प्रकरणकार तथा तत्त्वार्थसूत्रकार ने नया पुण्य उपार्जन करने के मुख्य नौं प्रकार दर्शाए हैं- १) योग्य सुपात्र को अन्न देना, २) योग्य सुपात्र को पानी देना, ३) आगंतुक अतिथि आदि को आसन-स्थान, जगह देना, ४) सोने आदि के लिए शयनार्थ पलंगादि देना, ५) वस्त्रादि देना, ६) आगंतुकादि के प्रति मन से शुभ-हितकारक विचार करना, ७) बोलने के समय उचितयोग्य शुभ भाषा का प्रयोग करना, ८) काया से सेवादि निमित्त प्रशस्त कार्य करना, तथा अन्तिम नौंवे प्रकार में नमस्कारादि की क्रिया करना, अन्य को मान-सन्मान प्रदान करना । ये पुण्योपार्जन करने योग्य मुख्य नौं प्रकार हैं। .. .
___पुण्योपार्जन करनेवाले जीव पर आधार है । उसके सामने के पात्र पर भी आधारित है जिसको वह ... रहा है । तथा अपने भाव पर भी पूरा आधार है । दया, दान, परोपकार, करुणा के कई प्रकार हैं जो पुण्योपार्जन कराते हैं परन्तु करना आना चाहिए। वह भी सही तरीके से । आखिर जीव इसी जन्म में तथाप्रकार के रास्ते से शुभ पुण्य उपार्जन करे...
और फिर विकास साधते हुए आगे बढे.... यह शुभ मार्ग है । आखिर आज का दिया हुआ कालान्तर में जन्मान्तर में कभी प्राप्त भी होता है । जिसने कुछ भी नहीं दिया है उसको कैसे मिलेगा? देने से मिलता है, देनेवाले को मिलता है। यह पुण्य के क्षेत्र में जगत का नियम है । अतः दानादि उपयोगी है । पशु गति के तिर्यंच प्राणी भी जगत् को काफी देते हैं । एक गाय भैंसादि जिन्दगी भर अपना दूध आदि देकर भी प्रबल पुण्योपार्जन कर लेते हैं । यद्यपि अकाम निर्जरा करके भी पुण्य बल से स्वर्गादि गति प्राप्त कर लेते हैं । वृक्ष भी जिन्दगी भर अपने फल जगत् को देकर ... जगत् पर महान उपकार करते हैं। उन्हें भी देने का दान-पुण्य का लाभ उतने प्रमाण में ही सही प्राप्त होता है । वे भी भव-भ्रमण में विकास साधते हुए आगे बढ़ते हैं।
गुणात्मक विकास
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