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________________ है । विकास की दिशा में आत्मा को अग्रसर करने के लिए पूर्वोपार्जित पुण्यकर्म आत्मा को प्रेरणा देता है, मार्गदर्शन करता है । वैसे संयोग खडे करता है । वैसे बड़े लोगों का योग प्राप्त कराता है। मिलाता है । सत्संग-संत महात्माओं का योग प्राप्त कराता है। एक्काई राठोड के भव में सेकडों भयंकर पाप करने के पश्चात असंख्य जन्मों तक नरकादि गति में दुःख भुगतने के बाद विकास की दिशा में आगे बढता है । उसको संत-समागम होता है और वह आत्मा धर्म समझती है, धर्म प्राप्त करती है, मोक्ष का मार्ग समझती है, और धीरे-धीरे वह आत्मा आगे बढती है । अन्त में चारित्र ग्रहण करके एक दिन वह आत्मा भी मोक्ष प्राप्त करती है। शुभ पुण्योदय का यही कार्य है कि आत्मा को शुभ योग-संयोग के निमित्त प्राप्त कराना । ऐसे शुभ योगों से जीव को आगे बढ़ने का सुन्दर अवसर प्राप्त होता है । कई बार भारी पाप कर्मों के उदय के कारण... जीव को सुंदर योग उपलब्ध होने के बावजूद भी वह उसे ले नहीं पाता है। उनसे दूर रहता है.। ऐसे कई परिवार देखे गए हैं जो साधु-सन्तों के उपाश्रय के पास रहने के बावजूद भी उनका सत्संग नहीं कर पाते हैं। लाभ नहीं उठा पाते हैं । अरे ! इतना ही नहीं, उल्टे दुर्बुद्धि के कारण ऐसे महात्माओं की वे निन्दा करते हैं, उन्हें परेशान करते हैं, उनको दुःखी करते हैं और उनको उल्टी बातें सुनाकर अपमान करते हैं । यह उन जीवों के अशुभ पाप कर्म के उदय की स्थिति है। अतः ऐसे जीव मुनि की विराधना करके पुनः पाप कर्म करके दुर्गति में अनेक भव करने के–परिभ्रमण के चक्कर में चले जाते हैं। यदि आपने तथाप्रकार का दान पुण्य उपार्जन किया है । संतो-महंतों को नमस्कार किया है । क्योंकि नौं प्रकार के पुण्य उपार्जन करने के उपाय में नौंवा प्रकार नमस्कार पुण्य का भी रखा है । जीव नमस्कार करके भी अनेक गुना पुण्य उपार्जन कर सकता है । परन्तु करना तो अपने हाथ में है । वैसी सद्बुद्धि भी तो होनी चाहिए। सद्भाव भी होने चाहिए। तभी साधु सन्त उपलब्ध होने पर वह जीव लाभ उठा सकेगा । विदेशों की धरती पर जहाँ साधु-सन्त उपलब्ध ही नहीं हैं वहाँ से भी कई लोक ऊँची भावना से यहाँ आते हैं और साधु सन्तों के दर्शन-वंदन करके अपने आप को पावन करते हैं। यह उनके पूर्व-पुण्योदय का सूचक निमित्त है । जबकि यहाँ पास में रहनेवाले कई लोग ऐसे भी हैं जिनको साधु-सन्तो के सत्संग का योग प्राप्त होने पर भी वे उसका लाभ नहीं उठा पाते हैं और उल्टा उनके निमित्त कई कर्म उपार्जन करके अपना अधःपतन करते हैं। अतः २९८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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