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________________ है। अध्यापक से प्राध्यापक की कक्षा प्राप्त होती है । आगे प्राध्यापक से प्रोफेसर भी बनते हैं । और आगे प्रिंसिपाल भी बनते हैं । कुलगुरु भी बनते हैं। शिक्षा मंत्री भी बनते हैं। इस तरह शिक्षा के क्षेत्र में मानव संस्थापित अनेक प्रकार की व्यवस्था है । पदादि हैं । इस क्षेत्र में भी कोई काफी अच्छी तरह आगे बढ़ते हुए विकास के कई सोपान आगे चढता है। यह व्यावहारिक शिक्षा के क्षेत्र का विकास है। आर्थिक क्षेत्र के विकास के बारे में विचार कर चुके हैं । इसी तरह जीव अपने परिवार में पारिवारिक क्षेत्र में भी विकास करता है। परिवार का मुखिया बनता है। परिवार का संचालक बनता है । व्यवस्थापक बनता है । ठीक है, उतने से सीमित दायरे में भी व्यक्ती ने अपनी प्रतिष्ठा बना ली । शरीर का भी एक क्षेत्र है । शारीरिक विकास भी लोग अनेक तरीकों से साधते हैं। कोई व्यायाम से, कोई आहार से, कोई आसनों से, कोई औषधियों से इस तरह अनेक तरीके हैं । और ऐसा ही लक्ष्य लेकर चलनेवाले इस दिशा में शारीरिक विकास भी साधते हए आगे बढ़ते हैं । सेण्डो दारासिंग आदि बने ही हैं, लेकिन एक बात का विशेष ध्यान रखिए कि... शरीर में चेतनात्मा है, तभी विकास साध्य है । यदि इस शरीर में चेतनात्मा हो ही नहीं... और मात्र मृत शरीर हो तो कोई विकास की क्रिया कर ही नहीं सकता है । अतः मृत शरीर में विकास की कोई प्रक्रिया नहीं होती है । वह जड पुद्गल का पिण्ड मात्र है। ____ ऐसे संसार के व्यवहार में ... अनेक क्षेत्रों में, अनेक कार्यों में अनेक विषयों में अनेक प्रकार के विकास होते हैं । अतः ये सब विकास व्यावहारिक विकास हैं । संसार के व्यवहार की व्यवस्था है। संसार में ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है। संसार की व्यवस्था तभी चल सकती है। अतः इस व्यवस्था में लोगों को व्यवस्थित किया जाता है जिसमें सुचारु रूप से संसार चल सके। इसके लिए पद, सत्ता, वेतन, कार्य आदि की व्यवस्था निर्धारित की जाती है। तभी यह व्यवस्था चलती है । इसे भी विकास के अन्तर्गत नाम दिया जा सकता है । क्योंकि संसार के व्यवहार क्षेत्र में आगे बढने रूप विकास साध्य कर्माधारित विकास___दो प्रकार के कर्म हैं—१) शुभ-पुण्य कर्म, २) अशुभ-पाप कर्म । शुभ-पुण्य कर्म- पुण्योदय भी आत्मा के विकास में काफी अच्छा सहायक बनता है। द्रव्य पुण्योपार्जन करने में दया-दान-परोपकार-परहितादि की शुभ प्रवृत्ति सहायक बनती गुणात्मक विकास २९७
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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