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प्रस्तावना
आध्यात्मिक ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता
- पंन्यास अरूणविजय म.
एवमणोरपारे संसारे सायरंमि भीमंमि । पत्तो अणंतखुत्तो जीवेहिं अपत्त धम्मेहिं ॥
अनन्त उपकारी महानज्ञानी गीतार्थ भगवंत बिल्कुल सत्य ही फरमाते हैं कि ... यह संसार सचमुच एक भयंकर महासागर जैसा है। ऐसे भयंकर महासमुद्र जैसे संसार का पार (अन्त) पाना बहुत ही असंभव जैसा है। ऐसे भयंकर संसार समुद्र में जीव का पतन - गिरना क्यों होता है? कैसे होता है ? इसके उत्तर में एक ही कारण दर्शाया है .. और वह है धर्म का अभाव, अप्राप्ति । उत्तम तारक धर्म न पाने के कारण ही जीव ऐसे भयंकर- भयावह संसार में अनन्तगुने - अगाध गहरे खड्डे में जा गिरते हैं । सचमुच संसार जीवों के पतन का ही क्षेत्र है । परिभ्रमण का क्षेत्र है । जन्मान्तर—- रूपान्तर— गत्यन्तर- पर्यायान्तर करते रहने का क्षेत्र है ।
सच देखा जाय तो संसार एक नाटक की रंगभूमि है। जैसे एक नाटक के मंच पर कई पात्र होते हैं । अपना नृत्य या संवाद करके चले जाते हैं । कभी कोई किसी के साथ कैसा संबंध बनाकर आता है तो कोई कैसा । फिर संबंध बदलकर दूसरा संबंध लेकर पुनः आता है । फिर चला जाता है । इस तरह २-३ घंटे के समय में मंच पर एक नाटक की कहानी पूरी हो जाती है । नाटक समाप्त होता है ।
ठीक इसी तरह यह समस्त पृथ्वी एक रंगमंच है । अनन्त जीव यहाँ पात्र बनकर आते हैं। पति-पत्नी, माता- -पिता, भाई-बहन, मित्र या शत्रु आदि अनेक प्रकार के संबंध लेकर-बनाकर अनन्त जीव इस संसार के नाटक में आते हैं । कुछ काल तक राग या द्वेष के संबंध में अपना संवाद या नृत्य प्रस्तुत करते हैं, फिर चले जाते हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ, कामवासना, राग- -द्वेषादि का आश्रय लेते हैं । कोई संग्रह - परिग्रह करते हैं । संबंध बदलते हैं, बढ़ते-बढाते हैं । टिकते - निभाते हैं । बिगडते - बिगाडते हैं। बस छोटी सी जिन्दगी का अन्त आता है, और मृत्यु होते ही संबंध-संबंधियों का वियोग होता है और जीवों को चला जाना पडता है । नाटक पर परदा गिरता है । दूसरे जन्म में फिर दूसरे
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