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________________ में है। अतः विकास संभव ही नहीं है। पृथ्वी, द्वीप, समुद्र, मेरुपर्वत, विमान-पृथ्वियाँ, तनवात, घनोदधि, घनवात, नरकपृथ्वियाँ आदि शाश्वत स्वरूप में हैं । उन में कोई क्या परिवर्तन कर सकता है ? कुछ भी नहीं । अतः विकास की कोई संभावना इस भूत-भौतिक पदार्थों में संभव ही नहीं है। . विकास-एक मात्र जीव-चेतन में ही होता है विकास का सीधा अर्थ होता है आगे आगे के सोपान चढते हुए ... आगे बढते रहना । आगे के निर्धारित साध्य को प्राप्त करके उससे भी आगे के साध्य को सिद्धगत करना । जिस प्रकार का साध्य का स्वरूप है वैसा बनना ... वैसा होना। अपनी अशुद्धियों-दोषों को दूर करके शुद्धीकरण करते करते शुद्ध करना... वैसी शुद्ध-सिद्ध अवस्था प्राप्त करना और वैसा बनना ही विकास की प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया एक मात्र जीव-चेतन आत्मा में ही हो सकती है। दोष-दुर्गणों को हटांना नष्ट करना, वहाँ गुणों-सद्गुणों की स्थापना करना, वैसे गुण के अनुरूप गुणी बनना, यही विकास श्रेष्ठ कक्षा का है । ऐसे विकास की प्रक्रिया एक मात्र जीव-चेतन द्रव्य में ही संभव है । अतः समस्त संसार में ऐसा विकास जीव में होता है। वही साधता है । चेतन-जीवात्मा ज्ञानमय द्रव्य है । उसमें चेतना शक्ती है। बस, जो ज्ञानवान द्रव्य है उसी में विकास की प्रक्रिया संभव है। विकास अच्छा ही होता है। विनाश उससे ठीक विपरीत होता है। विनाश की अपेक्षा पतन शब्द सही अर्थ में है। जैसे सीढी के सोपानों पर चढना-उतरना होता है । इस चढाव को विकास और उतार को पतन कहते हैं। यह प्रक्रिया एक मात्र जीव में ही होती है । जीव-चेतन व्यतिरिक्त अन्य किसी भी द्रव्य में यह प्रक्रिया नहीं होती है। जीवगत विकास अनेक तरीकों से होता है । क्योंकि जीव की अनेक अवस्थाएं उस उस क्षेत्र-काल में होती है। कभी कोई जीव परिवार की पारिवारिक अवस्था में बंधा हुआ व्यावहारिक विकास . 111 प्र ज्ञानक्षेत्रीय सत्ताक्षेत्रीय राजनीतिक कार्यक्षेत्रीय पारिवारिक M आर्थिक - शारीरिक MP आध्यात्मिक गुणात्मक विकास .. २९५
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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