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किसी भी प्रकार का विकास संभव है ? क्या किसी काल विशेष में इस द्रव्य की गति सहायता बढी है ? या घटी है ? कभी भी इस द्रव्य में प्रदेशों की संख्या बढी है ? या घटी है? अनन्तकाल में भी क्या इस धर्मास्तिकाय की किसी भी अवस्था में किसी भी प्रकार का परिवर्तन आया है? जी नहीं। क्या धर्मास्तिकाय द्रव्य की अरूपीपने की अवस्था बदलकर रूपीपना आया है ? हम किस प्रकार का विकास–विनाश उसमें साधे ?
जिसका विकास होता है उसी का विनाश भी होता है । अतः ये दोनों परस्पर विरोधि धर्म भी एक ही सिक्के की दो बाजू की तरह एक साथ जुड़े हुए हैं। साथ ही रहे हुए हैं। इसलिए धर्मास्तिकायादि अजीव द्रव्यों में तीनों काल में कभी भी विकास हआ ही नहीं है तो फिर विनाश होने का प्रथ ही कहाँ खडा होता है? धर्मास्तिकाय द्रव्य में से कभी भी गति सहायकता का गुण नष्ट नहीं हुआ है और न ही कभी कम हुआ है । न ही कभी किसी भी गति कारक द्रव्य के प्रति भेद भाव व्यक्त किया है । जीव को गति के बारे में सहायता करूँगा और पुद्गल-परमाणु को कभी भी गति के विषय में सहायता नहीं करूँगा। ऐसा भी कोई भेदभाव नहीं रखा । धर्मास्तिकाय द्रव्य में कर्तृत्व शक्ती नहीं है । कर्ताभाव नहीं है । अतः वह स्वयं कुछ भी नहीं करता है । गतिसहायकता का अपना स्वभाव विशेष है। द्रव्य होने के नाते गुण का अस्तित्व है। धर्मास्तिकाय अनादि-अनुत्पन्न, अविनाशी-अनन्त द्रव्य है। अब उत्पत्ति-विनाश ही नहीं है। अतः यह त्रैकालिक सत्तावाला द्रव्य है । और तीनों काल में एक जैसा ही, एक स्थायी स्वरूपवाला द्रव्य है। अतः किसी भी प्रकार का परिवर्तन संभव ही नहीं है।
इसी तरह अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय द्रव्यों की भी मीमांसा करनी चाहिए। बिल्कुल धर्मास्तिकाय के जैसे ही ये दोनों द्रव्य हैं । फरक मात्र इतना ही है कि ... इनके गुण भिन्न प्रकार के हैं। अधर्मास्तिकाय स्थितिस्थापकता सहायक द्रव्य है। आकाश अवकाश प्रदानता सहायक द्रव्य है । शेष सब स्वरूप अस्तित्वादि धर्मास्तिकाय के जैसा ही है । अतः अनन्तकाल में भी न तो इनके द्रव्यस्वरूप में परिवर्तन संभव है और न ही इनके गुण स्वरूप में, और न ही पर्यायस्वरूप में परिवर्तन होता है । अतः तीनों काल में सदा ही एक जैसे समान रूप से रहनेवाले ये तीनों द्रव्य है । अतः विकास–विनाश किसी की संभावना अंशमात्र भी नहीं है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा