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________________ तरह पाप की प्रवृत्ति रुकती नहीं है । परिणामस्वरूप जब बांधे हए पापों का विपाक-फल काल जब उदय में आता है तब बडा भयंकर दुःख देता है । ऐसी दुःखद परिस्थिति होती है कि उस दुःख में से बचना उसके लिए असंभव सा होता है । नरक की सजा बडी दुःखदायी होती है । नरक का काल भी बहुत लम्बा चौडा होता है। करोडों अरबों वर्षों का आयुष्य काल (सागरोपम = असंख्य वर्षों का) होता है । और उतने लम्बे काल तक अपने किये हुए पाप कर्मों की सजा उस जीव को भुगतनी पडती है । जो बडी भयंकर दुःखदायी होती है। उदाहरण के लिए यहाँ समझिए... जो व्यक्ती यहाँ अदम्य कामेच्छा को पूर्ण करने के लिए विकृत वासना के अधीन होकर.. किसी पर बलात्कार कर बैठता है । क्षणभर के क्षणिक सुखाभास की तृप्ति के लिए जबरदस्ती करता है । और दूसरी तरफ भयग्रस्तता की मानसिकता, दूषित अपराधिक भाव उसे चोर जैसा बना देता है । पकडे जाने पर जब १०-२० साल की जेल भुगतता है, वहाँ चार दिवालों में लोहे की जंजीरों में जकडा हुआ जब वर्षों तक सजा भुगतता है तब उसकी हालत कितनी खराब होती है ? उस दुःखद सजा की परिस्थिति में आर्तध्यान-रौद्रध्यान-चिन्ता, मरने-मारने की वृत्ति रहती है। मान लो १०-२० वर्ष का सजा का काल समाप्त होने के बाद वह अपराधी बाहर निकलता है। जेल से छूटकर आने के बाद फिर पाप करने के लिए मन उछलता है । इस तरह बार-बार पाप करना... बार-बार किये हुए पापों की सजा भुगतना । फिर दुःखी होना। फिर पाप करना, फिर दुःखी होना । यह क्रम अनन्त काल तक चलता ही रहता है । उस अनन्त काल तक जीव भी उस संसार के चार गति के ८४ लक्ष के चक्र में जन्म-मरण धारण करते करते घूमता ही रहता है । भवभ्रमण के चक्र का अन्त ही नहीं आता है। इस तरह पाप करने की इच्छा ही विकास की अवरोधक है । बाधक है । पापेच्छा व्यक्ति का पतन करती है। नीचे गिराती है। जिस में सुख नहीं है सुखाभास है उसकी वास्तविकता न समझकर ... उसकी भ्रान्ति-भ्रमणा में फसकर पाप करते ही रहने की वृत्ति से जीव का विकास कभी हो नहीं पाता है । जब विकास ही नहीं होता है तो विनाश तो होगा ही । उत्थान नहीं होगा तो पतन होगा। दोनों में से एक तो होगा ही । विकास की दिशा ऊपर की तरफ है उन्नत मस्तक होकर ऊपर चढते हुए आगे बढ़ते ही रहने की प्रक्रिया का नाम विकास है । ठीक इससे विपरीत विनाश की प्रक्रिया है । अवनत दृष्टि बनाकर अधो दिशा में प्रयाण करते रहना विनाश है । पाप की वृत्ति बना कर पतन की दिशा में जाते हुए.... अवनति साधना विनाश है। २९० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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