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विकास में बाधक पापरुचि
पाप की रुचि-पाप की इच्छा-पाप की प्रवृत्ति-पाप की परिणति–पाप की मनोवृत्ति विकास में बाधक बनती है । अनन्तकाल के भूतकाल में भी यदि आप विहंगावलोकन करें तो भी... आपको स्पष्ट दिखाई देगा कि पाप करके, या पाप की प्रवृत्ति बढाकर... पाप की इच्छाएं बढा चढाकर फिर पूरी करने के चक्कर में इस समग्र संसार में आज दिन तक कोई भी सुखी नहीं हुआ है। हाँ, पाप में क्षण भर के लिए सुख दिखाई देता है परन्तु वह भास मात्र है । अतः सुख नहीं सुखाभास है । आभास कभी भी वास्तविक-सच्चा नहीं होता है । मिथ्या होता है । जैसे... रेती पर पडी हुई सूर्य की किरणें दूर से देखनेवाले को पानी का आभास करती है । परन्तु वास्तविक पानी होता नहीं है । लेकिन प्यासे व्यक्ति के मन में क्षणभर के पानी पीने की इच्छा जगाकर आश्वासन जरूर दिलाता है। लेकिन वास्तव में पानी पीने को तो मिल ही नहीं पा रहा है। बस, देखने में भ्रान्ति खडी करके क्षण भर के लिए उस आभास ने सुख दिखा दिया। यह सुखाभास मनुष्य को प्रलोभन दिखाकर ललचाता है । मनुष्य का कमजोर मन खींचा जाता है । आखिर वह अपने आपको संभाल नहीं पाता है और उस इच्छा की प्रबलता के कारण आखिर उसका भोग बन ही जाता है।
ठीक वैसे ही मानव का कमजोर मन विषय वासना के कामेच्छा के पाप प्रति आकर्षित होता है । यह भी आभास मात्र ही है। वास्तविक सुख कहाँ है ? सुख की लालसा से जीव उसके पीछे भी पागल बन जाता है लेकिन एक क्षणिक सुख के लिए मनुष्य बहुत लम्बा दुःख खडा कर लेता है । फिर भी मानवी की इच्छा की तृप्ति नहीं होती है । परिणाम स्वरूप वह मनुष्य बार-बार पाप करने के लिए लालायित होता रहता है। बस, यही विषचक्र चलता रहता है । फिर इच्छाएँ जगती है, फिर तदनुरूप प्रवृत्ति करता है फिर अतृप्त-तृष्णा बनी रहती है...फिर वह तलप मन को विवश कर देती है... परिणाम स्वरूप प्रबल इच्छा फिर उसी दिशा में घसीटती है । प्रबल पाप की इच्छा से, असंतुष्ट मन से फिर उसी पाप को करते रहना, तीव्रता से करने–भोग भोगने की अदम्य तृष्णा फिर मन को विवश करती है । बस, यही विषचक्र चलता रहता है । जीव को यह पता नहीं कि... भोग भोगे जा रहे हैं कि मैं स्वयं भोगा जा रहा हूँ । पता ही नहीं चलता है ।
पाप करने का ऐसा भी एक भारी नशा होता है । जैसे नशा मनुष्य को गुलाम बना देता है । परवश कर देता है । पाप की पराधीनता पुनः पुनः पाप की प्रवृत्ति कराती है । इस
गुणात्मक विकास
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