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________________ अनुभव अन्य कोई नहीं कर सकता है। अतः यह जीवगत धर्म है। गुण है। अतः जन्म-मरण की प्रक्रिया से जीव के त्रैकालिक अस्तित्व की सिद्धि होती है। तथा जन्म-मरण के दुःख की अनुभूति करनेवाले के रूप में भी जीवात्मा की ही त्रैकालिक सत्ता सिद्ध होती है । अनन्त जन्म-मरण की संख्या से एक जीव के अनन्त जन्म-मरण सिद्ध होते हैं । इस अनन्तता से जीव की अनन्तकालीन सत्ता ही सिद्ध होती है । और भूतकाल जब अनन्त सिद्ध हुआ तब आदि कैसे सिद्ध होगा? नहीं । अतः अनादि सिद्ध होता है। अतः जीव का अस्तित्व जन्म-मरणादि अनादि-अनन्त कालीन सिद्ध होता है । इसी तरह अनन्त जन्म-मरण आदि की अपेक्षा से जीवों का अनन्त संख्या में होना-अस्तित्व सिद्ध होता है । इस तरह जीवसे जन्म-मरण, और जन्म-मरण के आधार पर जीव कात्रैकालिक अस्तित्व सिद्ध होता है। इसी तरह जीव से दुःख की और दुःख से जीव की सिद्धि होती है। जन्म-मरण सुख-दुःखादि जीवाश्रित हैं। ऐसे जीवात्मा द्रव्य का अस्तित्व है तो इसीका वाचक नाम जीवात्मा है । और जगत् के व्यवहार में प्रचलित जीव-चेतन-आत्मादि वाचक नाम है तो जीवद्रव्य का अस्तित्व भी है ही । भाषा शास्त्र के इतिहास की दृष्टि से भी देखा जाय तो प्राचीन से प्राचीन कालीन शास्त्र भी जीव-चेतन-आत्मा-जन्म-मरण-सुख-दुःखादि शब्द भी अर्वाचीन काल से व्यवहार में प्रचलित हैं । शास्त्रों में अंकित हैं। शास्त्रों में, तथा शास्त्रों के आधार पर सदा ही इनका व्यवहार होता ही रहा है । अतः ऐतिहासिक प्राचीनता का प्रमाण भी जीवात्मा को ऐतिहासिक सिद्ध करता है । अर्थात् बीते हुए भूतकाल में जीवात्मा के अस्तित्व को सिद्ध करता है । जब वाचक शब्द इतिहास के गर्त में सदा से ही है तो उसका वाचक द्रव्य जीव था तो ही वाच्य-वाचक संबंध से दोनों का ही अस्तित्व था । जीव-चेतन-आत्मा ये शब्द उस द्रव्य के वाचक हैं । और ज्ञानादि गुणवान् सुख-दुःखादि अनुभावक गुणवान द्रव्य तथा जन्म-मरणादि क्रियावान् वैसा जीव द्रव्य उस वाचक का वाच्य है । इस तरह वाच्य वाचकभाव संबंध भी अनन्त कालीन है। इस तरह ये शब्द भी द्रव्य के त्रैकालिक अस्तित्व को सिद्ध करते हैं और यह द्रव्य भी उसके वाचक जीवादि शब्दों का अस्तित्व भी तीनों काल में यही था । अनन्तकाल पहले भी ऐसे ज्ञानादि गुणवान द्रव्य को आत्मा ही कहते थे, चेतन ही कहते थे, और आज भी चेतन-आत्मा-जीवादि ही कहते हैं । अतः यह प्राचीनता भी अनन्तकालीन है । क्योंकि अनन्तकाल पहले भी जब जीव का अस्तित्व सिद्ध होता है, तो उस जीव की भाषा की भी अनन्तता सिद्ध होती है। भाषा व्यवहार का माध्यम है । जो वाच्य द्रव्य पदार्थ और उसके ज्ञानादि गुणों क्रिया आदि का व्यवहार करती २८६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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