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________________ नहीं है । जगत में दो ही तो द्रव्य हैं - एक जीव और दूसरा अजीव । अजीव जन्म-मरण धारण नहीं करता है । एक मात्र जीवात्मा का ही यह कार्य है । अतः जन्म-मरण की क्रिया भी जीव तत्त्व के त्रैकालिक अस्तित्व को सिद्ध करती है । जन्म-मरण भी अनादि सिद्ध है । अनन्तकालीन है। इसकी आदि कब से सिद्ध करें ? कैसे काल गणना करें ? काल कब से है ? तब से जन्म-मरण है । यहाँ तब शब्द भी काल की सीमा बांधनेवाला है । लेकिन काल की सीमा का बंधन हो ही नहीं सकता है । अतः जन्म-मरण की कालसीमा बांधी ही नहीं जा सकती है । अतः इस अनन्त ब्रह्माण्ड कभी एक दिन का, अरे ! एक क्षण मात्र का भी काल ऐसा नहीं था कि जिस समय जगत् किसी का जन्म-मरण नहीं हुआ हो। निगोद में एक बार आँख खोलकर बन्द करने जितने समय में, या एक श्वास लेने-छोडने के समय मात्र काल में १७१/२ जन्म-मरण हो जाते हैं । यह जन्म-मरण अनन्त काल से चल रहे हैं, और काल की गिनती का अन्त ही न होने से अनन्त होने से उसकी आदि संभव ही नहीं है। अतः जन्म-मरण भी अनादि - अनन्त सिद्ध है । 1 - जन्म-मरण क्या है ? जीव का उत्पत्ति योनि में जाकर शरीर बनाकर धारण करने की प्रक्रिया को जन्म कहते हैं । और इसी शरीर को छोड़कर जीवात्मा का चले जाने की प्रक्रिया को मरण कहते हैं । अनादि-अनन्त काल से चल रहे जन्म-मरण की प्रक्रिया के आधार पर - जीवात्मा का अस्तित्व भी अनादि-अनन्त कालीन सिद्ध होता है । जब से जीव है तब से जन्म-मरण संसार में है ही । और जब तक जन्म-मरण चलते ही रहेंगे तब तक संसार में जीव का अस्तित्व भी सदा ही रहेगा। जन्म-मरण जीव की कर्मजन्य संसारी अवस्था की पर्यायें हैं। संसार चक्र की चारों गति में ८४ लाख योनियों में समस्त ब्रह्माण्ड की दृष्टि से विचार करने पर पता चलेगा कि ... प्रतिक्षण ब्रह्माण्ड में कितने जन्म-मरण होते होंगे ? सर्वज्ञों के शब्द में इसका उत्तर "अनन्त " की संख्या में आएगा । साधारण वनस्पतिकाय की दृष्टि से विचार करने पर सूक्ष्म - बादर के प्रभेदों में स्थूल आलु–प्याज-लसून-गाजर-मूला - सूरण - अंकुरित में - लीलकाई में आदि सर्वत्र प्रतिक्षण अनन्त जीव जन्मते हैं और मरते हैं । अतः अनन्त काल से अनन्त जीवों का जन्म-मरण सतत निरंतर प्रतिक्षण चलता ही आ रहा है । यह अविरत अखण्ड रूप से चलती प्रक्रिया है । चलती ही जाती है। बस, इसी का नाम संसार है । जन्म-मरण दुःखदायि है । अतः दुःख किसको होता है ? जीव को । क्योंकि सुःख दुःख की संवेदना का अनुभव करना यह जीव का काम है । जीव के बिना सुख दुःख का गुणात्मक विकास २८५
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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