SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है । अतः भाषा की दृष्टि से आत्मा - चेतन - जीव द्रव्य में और इन शब्दों में वाच्य-वाचक 1 संबंध भी प्राग् ऐतिहासिक सिद्ध होता है । इसी शब्द का यही वाच्य और इसी वाच्य द्रव्य ये ही वाचक शब्द हैं। भेद भी नहीं । अरबों-खरबों वर्षों पहले भी जब प्रथम तीर्थंक आदिनाथ भगवान ने देशना दी तब भी आत्मा - चेतनादि इन्हीं शब्दों का प्रयोग किया था और इन शब्दों से वाच्य इसी ज्ञानादि - सुख - दुःखादि अनुभावक गुणवान द्रव्य की विवक्षा की थी । अन्य नहीं । वही भाषाकीय व्यवहार सभी तीर्थंकर करते आएं, और आ I आते सभी जीव सर्वत्र सभी शास्त्रादि भी इन्हीं आत्मादि द्रव्यों का ऐसे ही गुणसंपन्न आत्मद्रव्य के लिए प्रयोग - उपयोग करते आ रहे हैं । अतः भाषा से मात्र प्राग् ऐतिहासिकता ही नहीं अपितु ... परंपरा से अखंडितता भी सिद्ध होती है । नैरंतर्य - सातत्यता भी सिद्ध होती है । ऐसे आत्मद्रव्य पर ही सारा आधार है । यही चेतनात्मा सबके केन्द्र में है । 1 विकास किसका ? - “विकास” शब्द क्रमशः आगे बढते रहने का वाचक है। आगे बढना अर्थात वर्तमान अवस्था से काफी प्रगति करते हुए भावि की आगे की अवस्थाएं साधना क्रमशः आगे बढना उत्तरोत्तर आगे की कक्षा प्राप्त करना । विकास साधने, तथा न साधनेवाले ऐसे विभाग से ४ प्रकार के जीव होते हैं । १) विकास के सोपान चढते हुए आगे बढनेवाले जीव, २) विनाश के गर्त में गिरते हुए नीचे उतरने वाले । ३) तीसरे विकास के सोपान पर बैठे जरूर है लेकिन आगे नहीं बढ रहे हैं । तथा अन्तिम ४) चौथे विकास की सीमा पर बैठे जरूर हैं लेकिन आगे प्रगति न भी हो फिर भी नीचे नहीं गिरते हैं। विनाश का एक भी सोपान उतर नहीं रहे हैं। अपने आप को सावधान रखकर बैठे हैं । I इस तरह चार प्रकार के जीवों में प्रथम क्रम का जीव ही सर्वश्रेष्ठ प्रकार का है सर्वोच्च है । यह जीव पुरुषार्थवादी है । आँधी तूफानों से न डरता हुआ । ... उपसर्गों परिषहों से कभी भी न डरता हुआ, आपत्ति विपत्तियों से न घबराता हुआ... क्रमशः आगे बढता ही जाना .... और विकास की चरम सीमा को प्राप्त कर पूर्ण बनना वहाँ तक निरंतर विकास करते ही रहना । ऐसे दृष्टान्त भ. महावीर स्वामी, भ. पार्श्वनाथ अदि के जीवन के मिलेंगे ... । मरणान्त उपसर्गों को भी न गिनते हुए भी आगे बढने का क्रम सतत जारी रखा। दूसरे प्रकार के जीव पहले प्रकार के जीव से सर्वथा विपरीत प्रकार का है । यह विकासद्वेषी और विनाशप्रेमी हैं । बस, वैसे भारी अशुभ पाप कर्म का उदय है कि उसे विनाश ही पसंद आता है । पाप पसंद आता है । अतः वह पापरुचि जीव है । पाप करता गुणात्मक विकास २८७
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy