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का अस्तित्व नहीं रहेगा और बिना गुणों के द्रव्य का अस्तित्व नहीं रहेगा । अतः ये दोनों अभेद भाव से जुडे हुए साथ ही एकीभाव से रहते हैं । अतः जहाँ जहाँ द्रव्य हैं वहाँ वहाँ गुण अवश्य ही होते हैं और जहाँ जहाँ गुण होते हैं वहाँ द्रव्य अवश्य ही होता हैं । इस प्रकार की व्याप्ति है । व्याप्ति का अर्थ है अविनाभाव संबंध । अर्थात् एक के बिना दूसरे का न रहना । अर्थात् साहचर्य नियम व्याप्ति है । साथ ही रहने को व्याप्ति कहते हैं । जैसे सूर्य और सूर्य की किरणें सदा साथ ही रहती हैं। कभी भी भेद नहीं होता है । सूर्य के बिना किरणें नहीं रहती हैं और किरणों के बिना सूर्य नहीं रहता है। सूर्य द्रव्य है तो प्रकाश - किरणें उसका गुण है । द्रव्य गुण का अभेद संबंध है । ऐसा कभी भी नहीं हुआ है कि सूर्य का उदय हुआ लेकिन प्रकाश किरणें नहीं फैली हो । या कभी मात्र प्रकाश किरणें फैली हो और सूर्य न हो। ऐसा भी कभी नहीं हुआ है ।
इसी तरह आत्मा और ज्ञान - दर्शन - चारित्रादि गुणों का सूर्य एवं प्रकाश की तरह अभेदभाव से व्याप्ति संबंध है । आत्मा कभी भी ज्ञान के बिना नहीं रही और ज्ञान कभी भी आत्मा के बिना नहीं रहा । अतः दोनों में अविनाभाव व्याप्ति संबंध है । आत्मा द्रव्य है और ज्ञान–दर्शनादि उसके गुण हैं । आत्मा अरूपी - अमूर्त - अदृष्य तत्व है । ज्ञानदर्शनादि उसके गुण हैं । और देखना - जानना आदि उन गुणों की क्रिया है । तथा • प्रकार की क्रिया से गुणवान द्रव्य का प्रत्यक्षीकरण होता है । गुण द्रव्याश्रयी ही होते हैं । द्रव्य के साथ गुण का अभेद संबंध होता है । अतः द्रव्य के बिना गुण रह ही नहीं सकता है । द्रव्य से स्वतंत्र - भिन्न नहीं रह सकता है ।
द्रव्य के साथ ही रहते होने के कारण द्रव्य - गुण का परस्पर द्योतक हो जाता है । द्रव्य की पहचान गुण से और गुण की पहचान द्रव्य से होती है । गुणों का व्यवहार होता है । गुणों की जन्य क्रियाओं से भी व्यवहार होता है और इससे द्रव्य पहचाना जाता है | गुण क्रियाओं का व्यवहार प्रत्यक्ष होता है । गुण - क्रिया के प्रत्यक्षीकरण से गुणी द्रव्य का प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान होता है । सूर्यप्रकाश की तरह यहाँ आत्मा और ज्ञानादि हैं । ज्ञानादि के व्यवहार से आत्मा द्रव्य को आसानी से पहचाना जाता है । अतः ज्ञानादि गुण तथा तद्जन्य क्रिया जो व्यवहार में हमारे लिए ग्राह्य है उससे पहचानना चाहिए आत्मा को ।
इस तरह आत्मा नामक कोई द्रव्यविशेष का अस्तित्व हो तो ही उसका अभाव सिद्ध हो सकता है । अन्यथा नहीं। जिसकी त्रैकालिक सत्ता - अस्तित्व ही न हो उसका अभाव - निषेध भी सिद्ध नहीं किया जा सकता । और जो निषेध या अभाव सिद्ध किया जाता है वह अपेक्ष किया जाता है, न कि त्रैकालिक अस्तित्व सत्ता का अभाव सिद्ध
गुणात्मक विकास
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