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गुणात्मक विकास
परमपुरुष ... परमपूजनीय .. परमेष्ठी ... परमपिता ... परमात्मा श्री महावीरस्वामी के चरणारविन्द में अनन्त वन्दना पूर्वक ...
विकास किसका ?
अध्याय ६
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विकास के विषय में मीमांसा करते हैं । विकास की बात जब भी आती है तब एक प्रश्न उपस्थित होता है कि आखिर विकास किसका ? संसार में द्रव्यभूत पदार्थ जिसका अस्तित्व है वे तो सिर्फ दो ही हैं। एक जीव और दूसरा अजीव । बस, इन दो पदार्थों के सिवाय संसार में तीसरे किसी भी अन्य अतिरिक्त पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं है । जिनका भी अस्तित्व है वे सभी पदार्थ इन दो विभाग में समाविष्ट हो गए हैं। अजीव कहें या निर्जीव कहें आखिर बात एक ही है । यहाँ दोनों शब्दों में “अ” और “निर्” उपसर्ग निषेध अर्थ में प्रयुक्त है । किसका निषेध ? जीव का। आगे शब्द जीव है । और जीव शब्द के साथ ही “अ” और “निर्” उपसर्ग जुडे हुए हैं अतः जीव का ही निषेध सूचित है ।
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इस संसार में जिसका अस्तित्व है उसीका निषेध - अभाव भी कहा जा सकता है । यदि किसी का अस्तित्व ही न हो तो निषेध भी कैसे संभव होगा ? सर्वथा असंभव है । · जगत में जिनका अस्तित्व ही नहीं है उसका निषेध- या अभाव कैसे हो सकता है ? उदा.शशशृंग, वन्ध्यापुत्र, खपुष्प जैसी कोई वस्तु ही नहीं हैं। ऐसा कोई स्वतंत्र पदार्थ ही नहीं है, उसका अस्तित्व ही नहीं है तो अभाव कैसे होगा ? नियम ऐसा है कि ... जिसका अस्तित्व होता है उसीका निषेध या अभाव होता है । वन्ध्या को पुत्र होता ही नहीं है । पुत्र के अभाव के कारण ही वन्ध्या कहलाती है तो फिर वन्ध्यापुत्र कैसे कहें ? और यहाँ २ व्यक्ति हैं - एक वन्ध्या और दूसरा पुत्र । इसलिए एक पदार्थ नहीं है । इसी तरह शशशृंग में भी खरगोश के सिर पर सिंग नहीं हैं। हाँ, जगत् में खरगोश भी हैं । और सिंग भी हैं। गाय भैंस आदि के सिंग होते ही हैं। लेकिन खरगोश के सिंग नहीं होते हैं । इसी तरह खपुष्प ख = अर्थात् आकाश । आकाश में कोई पुष्प - फूल नहीं होता है । अतः इनका अस्तित्व ही न होने से अभाव - निषेध भी कभी भी सिद्ध नहीं होता है ।
गुणात्मक विकास
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