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________________ विचारधारा कर्म सिद्धान्त को आधारभूत न मानने का कारण है । भ. श्री वीर प्रभु कहते हैं कि— वैसे कर्म करें तो जीव जरूर पुनः मनुष्य बन सकता है । कभी कभी । परन्तु हमेशा वैसा ही बनता रहेगा। यह सिद्धान्त गलत है । कर्मानुसार - उत्थान-पतन - I किये हुए कर्मानुसार जीव बन्दर भी बनता है । बन्दर के जन्म में से आकर मनुष्य भी बन सकता है और मनुष्य के जन्म से मरकर वापिस बन्दर भी बन सकता है । अरे ! मनुष्य तो क्या देवलोक के देवता भी मरकर तिर्यंच की गति में आकर बन्दर का जन्म ले सकते हैं । एक स्वर्ग का देवता तीर्थयात्रा करने जाते समय .. गुफा में ज्ञानी गीतार्थ मुनि महात्मा को अपनी आगामी गति-भव के बारे में पूछता है । तब ज्ञानी मुनि महात्मा अपने ज्ञान योग से देखकर कहते हैं कि हे देव! तुम मृत्यु के पश्चात् यहाँ से च्युत होकर ... भरत क्षेत्र की विन्ध्यगिरि पर्वतमाला में बन्दर बनोगे । उस देव को अपने अवधिज्ञान से बात बिल्कुल सही लगी । इतने ऊपर की ऊँची देवगति से देव भव से इतना नीचे बन्दर की गति में गिरना यह पतन देव को बहुत दुःखदायी लगा । आखिर वह देव देवगति से च्युत होकर तिर्यंच गति में गया । वहाँ बन्दर बना । अपना जीवन नवकार महामंत्र की अद्भुत साधना में बिताकर पुनः बाजी सुधार ली और शुभ पुण्योपार्जन करके वापिस देवगति में जाकर देवता बना । इस तरह कृत कर्मानुसार जीव का चारों गति में गमनागमन होता ही रहता है । अनादि सिद्ध जीवस्वरूप सर्वज्ञ केवलज्ञानी परमात्मा महावीर प्रभु फरमाते हैं कि... आदि के अभाव में जीव की अनादि कालीन सत्ता स्वीकारी जाती है । तथा जब से जीव इस संसार में है तब से किसी न किसी शरीर को धारण किये हुए ही है। बिना शरीर के तो जीव संसार में रहा ही नहीं है । अब जब शरीर धारण करके ही रहा है । कृत कर्मानुसार शरीर बनाता ही रहा है । और आयुष्य की समाप्ति के पश्चात् पुनः शरीर परिवर्तन करता ही रहा है। शरीर का परिवर्तन मृत्यु के पश्चात् दूसरी गति जाति में जाने के पश्चात् ही संभव होता है । वनस्पतियों में तथा पशु-पक्षियों की एवं कृमि - कीट-पतंग - चिंटी-मकोडे आदि की जातियों में सर्वत्र जीव सृष्टि में जहाँ जहाँ भी जीव जिस-जिस जाति को - देह को धारण करके रहा है वह जाति अनादि सिद्ध है । अनन्तकाल से सिद्ध है । एक चीकू के बीज से वापिस चीकू ही बनेगा। एक आम की गुटली के बीज से वापिस आम ही बनेगा। एक बन्दर के बीज डार्विन के विकासवाद की समीक्षा २७९
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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