SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ “ तज्जीव-तत्शरीरवाद” की विचार धारावाले वे उस मत वाले थे। लेकिन बाद में भगवान महावीर स्वामी के पास आए। और इस मत पर चर्चा - विचारणा काफी की । आखिर करुणा के सागर परमात्मा श्री वीर प्रभु ने सुधर्मा को समझाया और कर्म के बंध कर्मविपाक के आधार पर किस तरह गतिजाति में परिवर्तन होता है यह समझाया । वेद पदों के रहस्य समझाएँ जिससे सुधर्मा की मति बदली । सम्यग् दृष्टि बनी । सुधर्मा ने सत्य को स्वीकार किया और भ. महावीर के पास दीक्षा ग्रहण करके जीवन प्रभु के चरणों में समर्पित किया । कृत कर्मानुसार जन्मान्तर वैसदृश्य यदि कर्म की सत्ता न मानें तब तो कुछ भी मानने का सवाल ही खड़ा नहीं होता है । परन्तु कर्म के बिना संसार चलता ही नहीं है अतः कर्म की सत्ता मानें बिना एक क्षण भी चल नहीं सकता है। बिना कर्म बांधे एक भी जीव मरता नहीं है। जन्म लेता नहीं है । अतः कर्म करके कर्म बांध के ही जीव जाता है। ज़न्म-मरण करता है । अब कर्म करने में सभी जीव एक समान—एक जैसा ही कर्म करेंगे यह कैसे संभव हो सकता है ? मनुष्यों को मरकर यदि वापिस मनुष्य ही बनना हो तो... सभी मनुष्यों को एक जैसा ही कर्म करना पडेगा । और सभी मनुष्य एक जैसा ही कर्म करे यह संभव भी नहीं है । संसार में देखते ही हैं कि ... कोई व्यभिचारी होता है तो कोई शुद्ध ब्रह्मचारी भी है ही । कोई दुराचारी - भ्रष्ट है तो कोई सदाचारी - सभ्य भी है। कुछ झूठ बोलनेवाले हैं तो कुछ सत्यवादी भी हैं तो सही । कुछ अविनयी उद्धत हैं तो कुछ विनयी - विवेकी हैं ही। इस सेंकडो पुण्य - - पाप, गुण-दोषों में भिन्नता वाले अनेक मनुष्य जगत् में है ही तो क्या सभी का समान कर्मबंध होगा ? कभी नहीं । संभव भी नहीं है । यह गलत - मिथ्या विचारधारा है । यदि ऐसा मानेंगे तो सज्जन सभ्यं व्यक्ती कहेगा कि हमें भी अच्छी सभ्यता का अच्छा आचरण करने की क्या जरूरत ? जैसा असभ्य दुष्ट-भ्रष्ट व्यक्ति को जन्म मिलने वाला है वैसा ही इसको भी जन्म मिलनेवाला है तो फिर क्या फायदा? इस तरह संसार में एक गलत विचारणा से आचार व्यवस्था सर्वथा विकृत - विपरीत हो जाती है । परंपरा कितनी खतरनाक विपरीत चलेगी । संसार में अच्छा फिर कुछ भी नहीं रहेगा । अतः एक गति - एक जाति मानने की आवश्यकता ही नहीं है । जन्मान्तर वैसदृश्य गति–जाति की भिन्नता और स्वकृत कर्मानुसार गति-जाति के सम्यग् सिद्धान्त को ही स्वीकारना चाहिए । यही सत्य - चरम सत्य है । सत्य को स्वीकारना ही सम्यग् ज्ञान है । यही कल्याणकारक है । उपरोक्त " एक गति - एक जाति" की 1 1 आध्यात्मिक विकास यात्रा २७८
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy