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________________ संपादक को भी कुछ कहना है ... जैसे संसार में डूबने का-कर्म का मार्ग शाश्वत है, वैसे ही संसार से तैरने का-पार उतरने का-धर्ममार्ग भी शाश्वत है । कर्म का मार्ग किसी को सिखाना नहीं पड़ता है, परन्तु धर्ममार्ग सिखाना अनिवार्य है। धर्ममार्ग कहो या मोक्षमार्ग कहो दोनों एक ही है । बात एक ही है । संसार से जो छुडाए-मुक्त करे वही मोक्षमार्ग है । और धू-धारण करने अर्थ में संस्कृत की मूल धातु से बना हुआ धर्म शब्द भी "दुर्गति प्रपतत् जन्तून् धारणात् धर्मोच्यते” दुर्गति में पडते हुए जीव को जो धारण करे-बचाए उसे धर्म कहते हैं । संसार की दुर्गति से बचाने का कार्य ही धर्म का है। " ____ यदि जीव धर्म करके भी संसार से, संसार की दुर्गतियों से न बच सके, ऊपर न उठ सके तो समझिए की वह धर्म सही धर्म नहीं है, या उस धर्म का आराधन-उपयोग जीव ने सही तरीके से नहीं किया है । जैन शासन में सुप्रसिद्ध तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में सर्वप्रथम सूत्र में मोक्ष मार्ग बताते हुए कहा है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । इस सूत्र में पू. वाचकमुख्यजी उमास्वातिजी म. ने धर्म भी बताया और धर्म के अंग बताकर उन्हें मोक्षप्राप्ति का मार्ग भी बता दिया है। ये सच्चे सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र... तीनों मोक्ष देनेवाले हैं, मोक्ष में ले जानेवाले, प्राप्त करानेवाले हैं। मोक्षप्राप्तिकारक होने के कारण यह सच्चा धर्म है। किसी भी संसारी जीव को मोक्ष का मार्ग बताना, दिखाना और उस जीव को मोक्ष मार्ग पर चढाना-आरूढ करना इससे बड़ा कोई परोपकार हो ही नहीं सकता है। यही संर्वोपरि उपकार है । स्वयं मोक्ष का उपासक हो और वह जगत् को मोक्ष का मार्ग बता सके तो अनेक जीवों का कल्याण हो सकता है । तीर्थंकर परमात्मा ने भी यही किया है और उनके अनुगामी, अनेक आचार्य उपाध्याय साधु भगवन्तों ने भी यही कार्य किया है । इतना ही नहीं प्रत्येक गुरु का यही कर्तव्य है कि जगत् को मोक्षप्राप्ति का सही सच्चा मार्ग बताए । अरे ! मोक्षमार्ग पर चढाए और क्रमशः आगे-आगे बढाते जाए। बस अपने इस कर्तव्य का पालन करने की वृत्ति-भावना में से ही इस पुस्तक का जन्म हुआ है। गुणस्थान क्रमारीह ग्रंथ का अध्ययन-अभ्यास करते समय से ही यह भावना बनती थी कि इस ग्रन्थ को सरलतम करके लोकभोग्य बनाकर जगत् के सामने रखना चाहिए ताकि अनेक भव्यात्माएं गुणस्थानों के मोक्षमार्ग पर आरूढ हो सकेंगे। आज इस भावना को साकार होते देखकर बड़ी खुशी-आनन्द का अनुभव कर रहा हूँ।
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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