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________________ उत्तर में उस सामान्य जीव को समझाते हुए कहते हैं कि... हे जीव ! एक रूपक उपमा के उदाहरण से ही तुझे समझा सकता हूँ... मानों एक अगाध महासागर हो और उसके किनारे कोई छोटी सी चिडिया या मछली पानी पीने लगे तो हे वत्स ! उसने एक बार में ही कितना पानी पिया? उत्तर : . मात्र थोडासा ! और कितना पानी पीना शेष है ? बस. ठीक इसी तरह जितना पानी पिया है उतने ही तेरे भव कहे हैं और जितना पानी अभी भी पीना शेष है उतने भव कहने शेष हैं । जब संख्या के अंक में उत्तर संभव नहीं है तो फिर क्या करें? ऐसी उपमा के द्वारा उत्तर दिया। इससे आज हमारे जैसे सामान्य जीव को कल्पना तो आए कि... हमने निगोद से निकलकर आज दिन तक कितने भव किये हैं ? अनन्त भव किये हैं और यदि मोक्ष की दिशा में प्रयाण नहीं किया तो, और मोक्ष के बीज आज भी इस भव में नहीं बोए तो... भविष्य में अभी भी अनन्त भवों की संभावना है। जैसे समस्त समुद्र के जल की...सूई के अग्रभाग पर आए इतनी बूंदे करने बैठे तो कितनी बंदे होंगी? उत्तर एक ही शब्द में आएगा- “अनन्त" । इतनी अनन्त की अगाधता है। सोचिए, अनन्त भवों का यह संसार हमने कैसे चलाया होगा? अनन्त भव और काल अनन्त भवों की संख्या बडी लगती है कि अनन्त काल की संख्या बडी लगती है ? अनन्त भवों की संख्या, अनन्त काल की संख्या के वर्षों दिनों के सामने छोटी सी लगेगी। क्योंकि एक भव तो कई वर्षों का भी हो सकता है । और कई दिनों का भी हो सकता है । इसलिए स्वाभाविक है कि भव संख्या दे व.ग ति छोटी होगी और काल संख्या बडी होगी। इस तरह चारों गतियों में पाँचों जातियों में जन्म-मरण धारण करते-करते जीव अनन्त भव करता जी व है । और काल भी अनन्त बिताता है । बस, इसी प्रक्रिया का नाम है संसार चक्र । जब तक जीव मोक्ष में न जाय तब तक जीव संसार चक्र की इन चारों ति र्यं च गति गति में परिभ्रमण करता ही रहता है । इसका कभी भी अन्त आता ही नहीं डार्विन के विकासवाद की समीक्षा २६९
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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