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२ दुर्गति
इन लहरों में चढाव-उतार दोनों हैं । इसी तरह जीव का इस संसार में जो परिभ्रमण होता
२ सद्गति रहता है उसमें चढाव - उतार काफी ज्यादा आ रहते हैं । यह चढाव - सद्गति में आता है, और उतार दुर्गति में होता है । स्वस्तिक की चार पंखुडियाँ चार गति की सूचक हैं । स्वस्तिक को बीच में से यदि आधे दो भाग करें। तो ऊपर की दो गतियाँ मनुष्य और देव की । दोनों गति सद्गति के रूप में गिनी जाती हैं । और नीचे की नरक
और तिर्यंच की । दो गति दुर्गति के रूप में गिनी जाती हैं । जीव का ऊपर से नीचे जब पतन होता है तब मनुष्य देवगति से नीचे गिरकर दुर्गति में आता है । और तिर्यंच पशुपक्षी ..के या नरक के भव करता है। यह ८०% से ९०% प्रतिशत होता है । लेकिन नीचे की दुर्गति से ऊपर चढकर वापिस तिर्यंच नरक में से मनुष्य- देव में जाना बहुत मुश्किल है । यह १०% से २०% भी मुश्किल से होता है । क्वचित् - कदाचित् जैसी प्रक्रिया है । इस तरह यह चारगति का संसार चक्र है । ८४ लाख जीव योनियों में जन्म मरण करते हुए अनन्त काल तक परिभ्रमण करते रहने का संसार है । इस संसार चक्र में अनन्त भव करते हुए अनन्त जन्म-मरण धारण करते हुए अनन्त काल बिताते हुए घांची के बैल की तरह जीव चार गति में गोल-गोल चक्राकार स्थिति में घूमता रहता है । शास्त्रकार महर्षि फरमाते हैं कि
न सा जाई न सा जोणी- न तत् कुलं न तत् ठाणं । जत्थ जीवो अणंतसो न जम्मा न मूआ ॥
जगत् में ऐसी कोई जाति नहीं है, ऐसी कोई योनि नहीं है, ऐसा कोई कुल नहीं है, ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ जीव अनन्त बार न जन्मा हो और न मरा हो । इस तरह जीव के अनन्त जन्म मरण बीत चुके हैं। अनन्त का अन्त कैसे आए ?
अनन्त की समझ
न अन्त = अनन्त जिसका अन्त आना संभव नहीं है उसे अनन्त कहते हैं । जैसे समुद्र की बूंदों की संख्या में गिनति करनी हो तो क्या अन्त संभव है ? जी नहीं । अनेक दृष्टान्त हैं जिससे अनन्त की कल्पना का ख्याल आ सके। कुछ दृष्टान्त रूपक होते हैं ।
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डार्विन के विकासवाद की समीक्षा
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