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अच्छा तो यह हुआ कि वह जीव निगोद में नहीं चला गया। यदि चला गया होता तो अनन्त जन्मों का अनन्त काल का दुःख शुरू हो जाता । निगोद से बच गया । इतने भयंकर पतन के बाद वापिस ऊपर भी उठा। किये हुए भयंकर पापों की सजा कितने जन्मों तक भुगतनी पडी । एक पाप के संस्कार जीव पर कितने भवों तक रहते हैं ? और बाद में वे पुराने पाप के संस्कार फिर नए पापों को करने के लिए जीव को प्रेरित करते हैं । और जीव नए पाप करता ही जाता है। इस तरह पापों की परंपरा चलती है । जिस तरह पापों की परंपरा चलती है इसी तरह नरक और तिर्यंच की दुर्गति में दुःख - सजा भुगतने की भी परंपरा चलती है । अन्त ही नहीं आता है । यह कितना भयंकर पतन है ? जीव किस तरह गिरता है और मनुष्य के जन्म तक पहुँचकर वहाँ से कैसे गिरता है ? इसका स्वरूप एक्काई राठोड का जीवन चरित्र देखने से ख्याल आ जाता है ।
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फिर उसकी आत्मा को ऊपर उठने का अवकाश मिलता है । और एकेन्द्रिय की कक्षा से वह जीव वापिस पंचेन्द्रिय पर्याय तक आता है । इस बार शुद्ध शाकाहारी ... पशु बनता है । गाय - बैल बनता है। पवित्र जन्म लेता है । वहाँ से श्रेष्ठिपुत्र बनता है । यौवन में आता है । साधु महात्मा का सत्संग मिलता है । सम्यक्त्व के बीज का वपन होता है । आगे चारित्र ग्रहण करता है । परिणाम स्वरूप स्वर्ग में जाता है । देव बनता है । फिर मनुष्य गति में आता है । फिर चारित्र ग्रहण करता है । इस तरह अन्त में वह जीव मोक्ष में जाता है । चढाव उतार की इस प्रक्रिया में जीव का उत्थान और पतन स्वकृत कर्मवश किस तरह होता है ? इसका स्वरूप स्पष्ट ख्याल आता है। बस, इसी का नाम संसार है । जीव चढाव उतार करते हुए संसार चक्र में परिभ्रमण करता जाता है। अनन्त भव और अनन्त काल बीतता जाता हैं ।
उत्थान और पतनं—
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जैसे समुद्र में सतत लहरें चलती ही रहती हैं । पानी स्थिर नहीं रहता है ज्वार-भाटा में पानी का सतत गमनागमन देखा जाता है । चढकर पानी किनारे तक पहुँचता है । फिर वापिस जाता है। इन ज्वार-भाटा की लहरें चलती हैं ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा