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________________ गूंगा-बहरा-जन्मांध-हाथ-पैर-रहित मांसपिण्ड के जैसा पडा है। और शरीर में अनेक रोगों से घिरा हुआ है । पूर्व के पाप कर्मों को आज दिन तक भोग रहा है । अन्धेरी कोटरी जैसे भोयरे में पड़ा है । दूध भी पेट में नहीं टिक पाता है । और वमन हो जाती है। उसी वमन को पुनः चाटता है । इस तरह नरक जैसी तीव्र वेदना यहाँ भुगतते भुगतते २६ वर्ष का आयुष्य समाप्त करके मरकर मृगापुत्र का जीव सिंह बना.... । पापी पेट के भरने के लिए जीव के सिंह के भव में कितने पंचेन्द्रिय जीवों की हत्या करके मारना पडता है, खाना पडता है। ऐसे पाप करता हुआ हजारों पंचेन्द्रिय जीवों की घोर हिंसा करता हुआ वह सिंह वापिस फिर वहाँ से ... रत्नप्रभा नामक पहली नरक में गया। फिर नरक से निकलकर साँप बना । साँप बनकर वापिस पंचेन्द्रिय हत्या का पाप करता रहा । पाप के कारण फिर वह साँप दूसरी नरक शर्कराप्रभा में गया । वहाँ ३ सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति में रहा । भयंकर वेदना भुगतता है । वहाँ से निकलकर... हिंसक जाती का पशु बना... भारी हिंसा के पाप करके. .तीसरी नरक वालुकाप्रभा में गया । सात सागरोपम का आयुष्य लिया । वहाँ से निकलकर पुनः तिर्यंच गति में—सिंह बना । फिर वही पाप-हिंसा भयंकर करके वापिस चौथी नरक पंकप्रभा में जीव गया । वहाँ से पाँचवी नरक में गया । फिर निकलकर मनुष्यगति में हल्के पाप करनेवाली स्त्री बना । पुनः पापों की परंपरा चालू रही । वहाँ से मरकर.. छट्ठी नरक में गया। वहाँ से निकलकर पुरुष रूप जन्म लिया। हल्की कक्षा का जन्म और हल्की कक्षा के अधम पाप सेंकडों किये । तथाप्रकार के प्राणीवध-हिंसादि के पाप करके ... सातवीं महातमःप्रभा नरक में गया। समस्त अधोलोक में सात ही नरक हैं । आगे आठवीं नरक नहीं हैं । और अभी भी उस जीव के अनेक पाप कर्म अवशिष्ट हैं । सातवीं नरक से निकलकर जीव पुनः पंचेन्द्रिय तिर्यंच की गति में पशु-पक्षी के भवों में भटकता रहा। जलचर में मछली–मगरमच्छ कछुए आदि के अनेक जन्म करता हुआ भटकता रहा । लाखों जन्मों तक भटकने के पश्चात् भी पाप कर्मों का प्रमाण काफी ज्यादा था। परिणाम स्वरूप स्थलचर-खेचर बना। फिर और नीचे गिरकर चउरिन्द्रिय में मक्खी -मच्छर-भौंरा बना। वहाँ से तेइन्द्रिय में चिंटी-मकोडा-खटमल बना। फिर वहाँ से दोइन्द्रिय में कृमि-कीट-अलसिये आदि बना । वहाँ से वनस्पतिकाय में जाकर बबुल-कांटे के वृक्ष के रूप में बना । फिर वायुकार्य-अग्निकाय–फिर पानी के जीवों में जन्म लिया और अन्त में गिरते गिरते पृथ्वीकाय में जन्म लेकर पत्थर भी बना । असंख्य जन्म बिताए । इस तरह जीव का पतन होता है। डार्विन के विकासवाद की समीक्षा २६५
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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