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________________ मिल जाय और उस अन्धे भिखारी को दिखाई ही न देता हो, फिर भी दरवाजे और दिवाल में भेद समझ न पाए।... इसमें जितनी असंभवता लगती है उससे ज्यादा असंभवता मनुष्य जन्म को पाने में लगती है। कम्म संगेहिं संमूढा, दुक्खिआ बहुवेअणा। अमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मति पाणिणो । त. ३-६ ।। कर्म के कारण अविवेकी-मूढ, दुःखों से दुःखी, अत्यन्त शारीरिक वेदना को भुगतनेवाला नरक-तिर्यंच गति तथा हल्के कुलवाली देवगति में जीव काफी उत्पन्न होते हैं। कई जीव जाते हैं जन्म लेते हैं लेकिन उन जन्मों से ऊपर नहीं उठ पाते हैं । तो फिर ऊँचे श्रेष्ठ मनुष्य जन्म में पहुँचने की संभावना ही कहाँ है ? ऐसे दर्लभ मनुष्य के जन्म में जीव को आना ही पडता है । भले ही असंभवसा क्यों न हो? लेकिन पाए बिना नहीं कर सकते हैं । वैसा ऊँचा मनुष्य का जन्म जीव पाए... फिर... ही आगे की प्रक्रिया संभव हो सकती है। शास्त्रकार महर्षियों ने ऐसे दस दृष्टान्तों से इस मनुष्यजन्म की दुर्लभता बताई है । वह समझने के बाद हमें मनुष्य जन्म की कीमत समझ में आएगी । हमें आज मनुष्य का जन्म मिल गया है इसलिए कुछ लगता नहीं है । सब कुछ आसान लगता है लेकिन वैसा नहीं है। मिलने के पीछे कितने जन्मों की साधना होगी, कितने जन्मों का योगदान दिया होगा, तब जाकर... हमने पाया होगा। इसका विचार कौन करता है? एक्काई राठोड के जीव का पतन___ हमारे पवित्रतम जो ऐसे ४५ आगम शास्त्र हैं उनमें ११ अंग सूत्रों में ११ वाँ अंगसूत्र जो विपाकसूत्र नामक आगम है उसके दुःख विपाक विभाग के प्रथम अध्ययन में एक्काई राठोड के जीव का चरित्र प्रभु महावीर ने फरमाया है । २५० वर्षों का दीर्घ आयुष्य प्राप्त करके एक्काई राठोड का जीव.. ५०० गांवों का सूबा-सूबेदार–छोटा राजा बना है। प्रजा से कर वसूल करने में प्रजा को काफी परेशान करता है । हर बात से दुःखी-दुःखी करता है । प्रजा बिचारी त्राहि माम् पुकार उठी। मारना-पीटना... डाँटना–फटकारना आदि प्रत्येक तरीके से वह पैसा लूटता था। ऐसी स्थिति में राजा ने २५० वर्ष के आयुष्य काल में लाखों पापकर्म किये । परिणाम स्वरूप भारी पाप के कारण वह जीव.. मृत्यु के पश्चात् पहली रत्नप्रभा नरक में गया.। वहाँ उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति तक भयंकर दुःख और वेदना ही भुगतनी है । एक सागरोपम अर्थात् असंख्य वर्षों का काल होता है । नरक से निकलकर एक्काई राठोड का वह जीव मृगापुत्र के रूप में पैदा हुआ। जिसके जन्म से ही आँख, नाक, कान, दोनों हाथ, दोनों पैर भी नहीं हैं। २६४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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