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कल्पसूत्र में बताया है कि जिनदास शेठ के पास धर्म पाए हुए दो बछडों की भी देवगति हुई । स्वर्ग में गए। विकास की दिशा में प्रगति काफी अच्छी हुई। लेकिन अन्त नहीं आया। ___विकास का अन्तिम सोपान तो मनुष्यगति की प्राप्ति ही है । वह भी धर्म की दृष्टि से.... सर्वश्रेष्ठ मनुष्य की ही गति है । स्वर्ग-देवलोक से च्युत होकर जीव... मनुष्य की गति में आया। संपूर्ण पंचेन्द्रिय... संज्ञि समनस्क मनुष्य की गति में आया। संपूर्ण पंचेन्द्रिय...संज्ञि समनस्क मनुष्य का शरीर विकास की चरम सीमा है । अन्तिम है । बस मनुष्य के बाद इससे ऊँचा अच्छा और कोई विकास नहीं है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि सभी दृष्टि से विकास काफी अच्छा हुआ। अन्तिम कक्षा का विकास हुआ है । शरीर की रचना में इस प्रकार के शरीर की रचना श्रेष्ठ कक्षा की चरम कक्षा की है । और आपको
आश्चर्य इस बात का लगेगा कि इस प्रकार की ऐसी मनुष्य देह की रचना अनादि-अनन्त काल से शाश्वत है । अरबों-खरबों वर्षों पहले भी मनुष्य देह की रचना ठीक ऐसी ही होती थी और आज भी ऐसी ही होती है। पहले किसी भी अंग की न्यूनता कभी नहीं थी
और आज किसी अंग की अधिकता नहीं बनी है। अतः इस प्रकार के मानव देह की आकृति-रचना शाश्वत-नित्य प्रकार की है।
इसी तरह देवगति के देवताओं के वैक्रिय शरीर की रचना की व्यवस्था भी शाश्वत है । पाँचों इन्द्रियोंवाले संज्ञि समनस्क शरीर की रचना शाश्वत है। इसी तरह नरक गति में नारकी जीवों की शरीर रचना व्यवस्था शाश्वत नित्य है । अनन्त काल में भी कोई परिवर्तन का प्रश्न ही नहीं हुआ है। इस तरह जगत् में जिस जिस योनि में जिस जिस प्रकार की शरीर रचना की व्यवस्था है वह शाश्वत व्यवस्था है । एक चिंटी-मकोडे के शरीर की रचना भी देखिए ... वह भी शाश्वत है। अनादि काल पहले भी चिंटी जैसी बनती थी ठीक वैसी ही आज भी बनती है । कोई फर्क नहीं है । इस प्रकार की शाश्वतता त्रैकालिक है । तीनों काल में एक जैसी ही सदा रहनेवाली है । मनुष्य की गति अन्तिम गति
८४ लाख जीव योनियों में परिभ्रमण करता हुआ जीव अन्त में मनुष्य की गति में आता है। बस, यह अन्तिम गति है । अन्तिम भव है । सर्वोत्कृष्ट कक्षा का सर्वश्रेष्ठ प्रकार का जन्म और गति मनुष्य की है । निगोद का जन्म-भव सर्वप्रथम भव है तो मनुष्य का जन्म सर्व अन्तिम है । चरम भव है। जैसे काश्मीर से निकलकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक आए वहाँ भारत की भूमि का अन्त है । बस आगे समुद्र है । अतः अन्तिम किनारा
डार्विन के विकासवाद की समीक्षा
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